Monday, November 29, 2010

कुछ लिखना, बदलियाँ, मासूमियत, कोई अनकहा अध्याय, असली पन्ना, प्यार जताना, मेरे जज़्बात, होठों के निशाँ

dedicated to my special someone Q.........

१. कुछ लिखना

तू चाहती थी कि
मैं लिखूं तुझ पर कुछ
पर पाता हूं खुद को असमर्थ
कि तुम
जो खुद एक किताब हो
उसके पन्ने पलटते पलटते
खुद मैं खो जाता हूं
पर हाँ, इतना लिखना काफी है
कि मेरी ज़िन्दगी की किताब के
मुखपृष्ठ पर छपी तेरी आँखें
डूबने के लिए काफी हैं!!!

२. बदलियाँ

बेशक सूख चुकी हैं
मेरी आँखे
लेकिन देखकर
कल की तेरी भीगी आँखें
और आज कि तेरी याद से
बरस पड़ी मेरी आँखों से
बदलियाँ!!!


३. मासूमियत

कल देखी थी तेरे
चेहरे की मासूमियत
अब अगर मेरी ऑंखें
देखने में धोखा खा जाये
तो भी
मुझे मंज़ूर है!!!

४. उसूल

कुछ तो हम नादाँ थे
कुछ कुसूर था तेरी मासूमियत का
वक्त यूँही गुज़रता गया
हम उसूल निभाते रहे.!!!

५. कोई अनकहा अध्याय

तेरी कलम को मैंने
कहीं छुपा कर रख दिया है
डरता हूं कहीं
ये फिर से ना लिख दे
कोई अनकहा अध्याय!!!

६. असली पन्ना

हवा के झोंखे पलटते रहते हैं
मेरी ज़िन्दगी के पन्ने
मैं हमेशा कि तरह उधेड़बुन में
उलझा रह जाता हूं
और हर बार
पढने से छूट जाता है
ज़िन्दगी का एक
असली पन्ना!!!

७. प्यार जताना

तुने मुझे सिखाया है
बोलना, सोचना
महसूस करना
अब प्यार करना और
जताना भी सिखा दे!!!

८. मेरे जज़्बात

कल तुने कहा था-
मैं उतना परिपक्व हूँ नहीं
जितना समझता हूं
तुने सही कहा है
शायद इसीलिए
हर बार क़त्ल हो जाते हैं
मेरे जज़्बात
मेरे ही हाथों!!!

९. होठों के निशाँ

तू जाते जाते
छोड़ गई थी गिलास पर
अपने होठों के निशाँ
मैं भी पी गया था फिर
उसी गिलास से पानी
अब किसी और से पीना
फीका फीका सा लगता है!!!

Tuesday, November 23, 2010

हाँ, ठीक है!

प्रेमिका खाती कितने भाव
चाल-चाल में बात-बात में
नयन नखरे अठारह करती
प्रेमी बेचारा फिर भी बोले
हाँ, ठीक है!

प्रेमिका देती नाना नाम
उल्लू, नीबू, फटीचर
करेला, घोंचू, घनचक्कर
प्रेमी बेचारा फिर भी बोले
हाँ, ठीक है!

जब प्रेमिका सामने होती
प्रेमी की जुबाँ गायब रहती
कुछ ना बोले बस सुनता जाये
प्रेमिका जोर जोर से चिल्लाये
प्रेमी बेचारा फिर भी बोले
हाँ, ठीक है!

प्रेमी की बात एक ना माने
महारानी सा ऑर्डर मारे
प्रेमी कभी चैन से सोले
प्रेमिका भड़के बोले,
स्टैंड - अप!
प्रेमी बेचारा फिर भी बोले
हाँ, ठीक है!

पर प्रेमिका का इन्साफ तो देखो
अपने दिल और दिमाग को खोलो
कभी अगर तुमने आंख दिखाई
बोले, रिश्ता तोड़ो!
प्रेमिका झट बोल पड़ेगी
हाँ, ठीक है!!!

Friday, November 19, 2010

दायरा

दुनिया मै आने के साथ ही
मुझे आवश्यकता थी
ज्ञान की
कि दी जा सके
सही मायनों में शिक्षा
आँख और कान खुलने के साथ ही
दिलवाया गया प्रवेश
स्कूल और कॉलेज में.

ताकि बढ़ सके दायरा
सही और सार्थक दिशा में
मेरी सोच और अभिलाषाओं का
ज्ञान पाकर कुछ दे सकूँ
पुनः इस संसार को
समझूँ सामाजिक सरोकारों को.

परन्तु ज्ञान के साथ साथ मिले
भांति भांति के लोग
मेरी अभिलाषाएं
अवांछित इच्छाओं में बदल गईं
विमुख हो गई दिशा
नहीं रही व्यावहारिकता.

जीवन चलाने के लिए
जरुरी थी एक नौकरी
वो मिली भी
परन्तु मैंने भुला दिए
शिक्षा के सही मायने
संसार के प्रति अपने दायित्व.

अब बस उड़ता हूं
मिथ्या कल्पनाओं में
सपनो में देखता हूं
एक बड़ा सा महल
बड़ा ही बैंक बैलेंस
और एक खुबसूरत स्त्री का साथ

बस यही रह गया है
मेरी शिक्षा और सोच का
दायरा!

Wednesday, September 1, 2010

जश्न, शर्त, ग़ज़ल, बादलों की जरुरत, क़र्ज़

1.  जश्न

मैं
हर उस ख़ुशी का
जश्न मनाने से डरता हूं
जिसे
खोना नहीं चाहता...!!!


२.   शर्त

तू कहे तो
मैं अपनी
हर ख़ुशी पर
तेरा नाम लिख दूँ,
शर्त यह है
कि तू
तेरे किसी गम में
मुझे
भागीदार बना ले..!!!


३.   ग़ज़ल

चाहता हूं
तेरी हर अदा पर
ग़ज़ल कहूँ
मगर मेरे लफ़्ज़ों में,
तुझ जैसी खूबसूरती कहाँ..!!!


४. बादलों की जरुरत

भोर की
पहली किरण के साथ ही
आज देखली सबने
तेरे गेसुओं की घटाएं,
तो बरसने के लिए
बादलों की
कहाँ जरुरत है भला...!!!


५. क़र्ज़

तेरे लबों से
मांगी थी उधार
थोड़ी सी मुस्कुराहट
आज तक
अदा नहीं कर पाया,
ब्याज भी
तेरे क़र्ज़ का....!!!

Sunday, August 29, 2010

कोई था वहाँ

कहते हैं जन्माष्टमी कि रात बहुत अंधेरी रात होती है. ऐसे ही रात के १२-१ बज गए थे, भजन पूजा में. मैं थोडा भूखा किस्म का आदमी हूं. बस इंतज़ार कर रहा था, कब १२ बजे और खा लूँ. पेट में दौड़ते चूहों कि वजह से मेरा ध्यान भगवान् में कम खाने में ज्यादा लग रहा था. झट १२ बजे, फट खा लिया. करीब एक बजे घर में सब सो गए थे. मैं भी अपने कमरे में जाकर निश्चिन्त होकर सो गया.

रात को किसी समय मुझे घर में किसी के चलने कि आहट सुनाई दी. ये पाजेब जैसी आवाज़ कैसी? आवाज़ से तो लग रहा है कोई लड़की है. पैर रखने कि आवाज़...बहुत ही आहिस्ता आहिस्ता.....छन्नंनन्न.....छनननन..... मैं थोडा डरा डरा सा महसूस करने लगा. घर में तो सब सो गए फिर ये आवाज़ अभी और इस वक्त? फिर धीरे से रसोई का दरवाज़ा खुलने कि आहट. पहले तो मैं सोचता रहा घर में से ही कोई होगा. फिर काफी देर तक खट खट सामान उठाने पटकने कि आवाजें आती रहीं.

मुझसे रहा नहीं गया. मैं धीरे से हिम्मत करके उठा. धीरे से बत्ती जलाई कि कहीं स्विच कि आवाज़ कमरे से बाहर नहीं चली जाए. राम राम जपते जपते मैं आहिस्ता आहिस्ता दबे कदमो से हाला. पहले सर बाहर निकालकर चारों तरफ देखा. फिर बायाँ पैर आगे लाया, फिर दायाँ. कोई नही दिखा. थोड़ी राहत कि सांस ली. अचानक मेरी नज़र रसोई घर की और गई. दरवाज़ा खुला था वो भी पूरा. अन्दर रौशनी भी हो रही थी. लेकिन ये रौशनी कुछ अजीब सी क्यूँ हैं? त्युब्लाईट या बल्ब में तो ऐसी रौशनी नहीं होती. लेकिन ये रौशनी होने के बावजूद लाइट क्यूँ जली हुई है? मुझे कुछ समझ में क्यूँ नहीं आ रहा है? ये चक्कर क्या है? मैं थोडा और आगे बढ़ा राम राम रटते हुए. मैंने देखा करीब साढ़े पांच फीट कि आकृति खड़ी है. गुलाबी रंग का सूट पहना है. घने लम्बे खुले बाल पीछे की और लटके हुए हैं. उसका मुंह दूसरी तरफ है. मैं उससे सिर्फ ५-६ फीट कि दूरी पर खड़ा था फिर भी मुझे उसकी आकृति धुंधली सी दिखाई दे रही थी. लेकिन उसकी चहल कदमी से लग रहा था कि वो रोटियां बेल रही थी.मेरा दिमाग फिर चकित..इसके जैसा घर में तो कोई नहीं है फिर ये लड़की कौन है और इस वक्त रोटियां क्यों बना रही है? और वो भी इतनी तल्लीनता के साथ. उसे पता ही नहीं चल रहा था कि उसके थोड़ी सी दूरी पर ही कोई खड़ा है. मैं खुद से सवाल जवाब में उलझता रहा.पहले तो सोचा किसी को जगाओं. फिर सोचा, नहीं वो ठीक नहीं रहेगा, खुद ही देखता हूं.

मैं फिर मन ही मन रामराम जपते जपते धीरे से उसके पास पहुंचा.  उसका ध्यान अभी भी रोटियां बेलने में लगा हुआ है. मैंने हिम्मत करके धीरे से उसके दायें कंधे पर हाथ रखा. वो हलके से चौंकी और पीछे मुड़ी. उसे देखकर मै अचंभित रह गया.

तुम?????(मैंने आश्चर्य से पूछा)

हाँ, मैं.....(उसने दृढ़ता से जवाब दिया).

अचानक उसे देख मेरा तो डर ही ख़त्म हो गया. सारा डर आश्चर्य मै बदल गया. बल्कि मुझे डर के बजाय सुकून व सुखद महसूस होने लगा था. हालांकि उसका चेहरा तो अभी भी स्पष्ट नहीं था. लेकिन मैंने उसे पहचान लिया था. ये तो वही लड़की है जिसके लिए मैं मन्नतें किया करता था. उसको इसी रूप मै देखना चाहता था. वो भी ऐसा ही चाहती थी. लेकिन कुछ परिस्थितियाँ शायद ज्यादा इज़ाज़त नहीं दे रही थी.फिर भी उसे देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा था कि ये इतने अधिकृत भाव से यहाँ कैसे कड़ी है? और इतने सरल भाव से मेरी तरफ मुस्करा क्यूँ रही है? मैं भी अपने गाल खेंचकर मुस्कुराने लगा. मैंने दूसरा हाथ भी उसके कंधे पर रख दिया. अब उसके dono कन्धों को पकडे हुए मुस्कुराते मुस्कुराते उसके करीब जाने की कौशिश करने लगा. अचानक किसी ने मेरे गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा. मेरे तो होश उड़ गए. देखा बगल मै छोटा भाई सोया हुआ है और ठहाके मारकर मेरी दशा पे हंस रहा है. दादी चाय का कप लिए सामने कड़ी है. चिड़ियाएँ भी जैसे मेरी हालत पर चह चहाकर अपनी हंसी जाता रही थीं  और मैं अपने दांतों के बीच ऊँगली दबाये शर्मा रहा था. थोड़ी हंसी भी आ रही थी और थोडा गुस्सा भी....'अच्छा ख़ासा सपना चल रहा था यार'.....!!!

Sunday, August 22, 2010

डर, बंधन, झूंठ

(first attempt to say in few words...all the three are independent to each other.)

       (१) डर
यूँ तो नहीं डरता मैं
कभी
हालों से या हालातों से
पर
बहुत सहम सा
जाता हूं जब
ख़त्म होने लगती है
श्याही
कविता
लिखते लिखते...!!!



(२) बंधन


कहते हैं
प्यार होता है
स्वच्छंद 
नहीं बंधता कभी
किसी पाश या सीमा में,
फिर क्या यह 
सच नहीं है कि
कभी कभी
बाँध देती है
दो गलबहियां भी
प्यार को बन्धनों में ..!!!



 (3) झूंठ

वैसे तो नहीं
अच्छा लगता
सुनना कहना
कोई भी झूंठ,
पर कितना सुखद 
होता है जब
तेरे लब झूंठ बोलें
और
सच बयां कर दे
आँखे...!!!

Tuesday, August 17, 2010

तेरे शहर में

हर कली महकती है हर फूल खिलता है
तकदीर पर नाज़ करती हर फिजा....
तेरे शहर में.....!!!

तेरे घर जाती है जो गली, बड़ी अजीब है
ढूँढता हूं तुझे, पर खुद खो जाता हूं.....
तेरे शहर में.......!!!

तेरी छत का दिया, दूर से बुझा बुझा सा दिखता है
उसे जलाने की कोशिश में, हाथ जला लेता हूं....
तेरे शहर में........!!!

तेरी शौख अदाएं, अल्हड़पन, हैं सुर्ख़ियों में है हर तरफ
अखबार की खबर मुझसे कोई चुरा लेता है.....
तेरे शहर में..........!!!

कोई वादा करता है, ये निभाता है वो भुलाता है
वादों के सौदागर हैं बहुत......
तेरे शहर में........!!!

कभी सताते हैं कभी बुलाते हैं तेरे चाहने वाले
मैं तेरे पहलू में आके रो देना चाहता हूं......
तेरे शहर में........!!!

तेरा तो मुझे नहीं पता मगर इतना जानता हूं
बेवफाओं की कमी नहीं है.........
तेरे शहर में..........!!!

Saturday, August 14, 2010

स्वाधीनता दिवस

बीत चुका
एक ज़माना
जब मिली थी
हमें
उपहार में नहीं
बल्कि
बड़े संघर्ष के बाद
स्वाधीनता.

उस पावन दिन को
याद करते रहने के लिए
किया हमने आरक्षित
एक दिन
वर्ष में एक बार.

बस उस दिन हमें
याद रहता है
कि हम आज
आज़ाद हुए थे,
आज़ाद हैं नहीं.

कभी नहीं करते मूल्यांकन
कि आखिर
कितना खोया क्या पाया
पिछले ६० सालों में.

कभी नहीं देखते हम
कि आज भी अधीन है
हमारी भाषा
हमारी संस्कृति
हमारी सोच
दूसरों की.

बस एक झंडा फहराया
राष्ट्रगान गाया
दो नारे लगाए
एक भाषण दिया
और मान लिया कि
मनाली वर्षगाँठ   
स्वाधीनता की.

आओं इस बार कुछ अलग करें
समझें असली मायने इस दिवस के
प्रण लें कि
मिटाएंगे अशिक्षा, आतंकवाद
अशांति, प्रदूषण
और भी कई समस्याएं
भारतवर्ष की.

आओ हम अपनी संस्कृति अक्षुन्न रखें
अनेकता में एकता
अपनी भाषा मन की भाषा
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
सिद्धांतो को अपनाएं
पराधीन सोच और विचारों कि बेड़ियाँ हटायें.

रखें सकारात्मक सोच
सादा जीवन उच्च विचार
शांति , प्यार, भाईचारा
बढाएं
और मनाएं
सही अर्थों में,
स्वाधीनता दिवस.....!!!!

Monday, August 9, 2010

पेड़

मैं पेड़
धरती का श्रृंगार
मानो तो
सबसे बड़ा दातार.

सदा ही देता आया
तुम इंसानों को
पानी, हवा
फल, छाँव
आदि आदि.

बदले में क्या चाहा था?
बस इतना कि
लिपट सकें
तुम्हारे बच्चे
मेरे सीने से.

कुछ ज्यादा तो
सावन के झूले
झूमे
मेरी बाहों में.

और भी कुछ तो
बैठें पांच लोग
रूबरू हों राधा कृष्ण
थोड़ा सो ले कोई
भूला भटका राही
मेरे आँचल की छाँव में.

पर तुम इंसानों की
ऐसी भी क्या कृतज्ञता?
कि कर दिए
टुकड़े टुकड़े
मेरे धड़ के ही
छीनकर
पहले पत्तियां
फिर डालियाँ
और फिर तना भी.

फेंक दिया
उखाड़कर
जड़ से ही
जब गुजरा तुम्हारा
स्वर्णिम चतुर्भुज.

इंसान!
वाह रे,
तेरा इन्साफ!
तेरी वफ़ा!
तेरी फितरत...!!

Monday, August 2, 2010

पहिया

एक पहिया
शुरू हो जाता है लुढ़कना
हमारे आने के साथ ही
इस दुनिया में.

वो लुढ़कता रहता है लगातार
बिना रुके बिना मुड़े
उसके साथ लुढ़कते रहते हैं हम भी
पहले कोई हमें  लुढ़काता है
फिर हम किसी को.

फिर एक दिन पहुँच जाते हैं
कोसों दूर
भूल जाते हैं अपना उद्गम
रास्ते के उतार चढ़ाव
राही, हमसफ़र और सफ़र तक को भी.

ये भी भूल जाते हैं कि
लुढ़कना किधर था
लुढ़क किधर गए
और लुढ़कते लुढ़कते एक दिन
रुक जाता है पहिया
खुद ही.

ये लुढ़कना ही ज़िन्दगी का
नाम है शायद..!!!

Thursday, July 29, 2010

फर्क

हर कोई पाता राहों में
बिखरे पड़े कुछ पत्थर
फर्क बस इतना है
कोई चुनता दीवारें,
और कोई बनाता पुल !!!

मंजिल सबकी अव्वल बिंदु
सबको है पगडण्डी पर चलना
फर्क बस इतना है
कोई सरपट दौड़े जाता
और कोई कहता,
'राह में कांटे बहुत हैं' !!!


दरिया से घिरे हैं सब
पार कर सबको है जाना
फर्क बस इतना है
कोई नहाने के बहाने खोजता है,
और कोई डूबने के !!!

दिवाली हर घर में आती
दीये हैं सबको जलाना
फर्क बस इतना है
कोई तेल जलाता है,
और कोई दिल !!!

हर शाम जल उठते है चराग
कहीं कम कहीं ज्यादा
फर्क बस इतना है
कोई उजाले चुरा लेता है
और कोई कहता-
'लौ कम है' !!!

अवसर देता दस्तक सबको
खट खट, खट खट
फर्क बस इतना है
कोई पहचान लेता है
और कोई कहता-
'बाद में आना' !!!

Monday, July 26, 2010

सपना टूट जाता है

रात के अंधेरों में
तारों की जगमगाहट के बीच
जब चांदनी शिखर पर होती है
चाँद अंगडाई लेता है.

तब तुम आती हो
कुछ लहराते हुए, कुछ इठलाते हुए
कुछ बल खाते हुए, कुछ शर्माते हुए.

तेरे गेसुओं के बादल  
होठों की मुस्कराहट
काजल की श्याही
गजरे की महक
रिझाती है मुझे.

मैं मुस्कुराता हूं
भाग्य पर इठलाता हूं
बेताब हो तुम्हे
छूने की कोशिश करता हूं
पर,
सपना फिर टूट जाता है......!!!!!!!!!! 

Wednesday, July 21, 2010

जीत

an effort to feel something in the way of children.....!!!

३० जून, गर्मी की छुट्टियों का आखरी दिन. क्युटू और लल्ला दोनों अपनी छत पर खड़े हुए हैं. क्युटू होगी कोई ७ साल की और लल्ला करीब ९ साल का. दोनों आज जमकर खेल लेना चाहे है जैसे आज के बाद उनकी कभी छुट्टी होगी ही नहीं. बात बात में खिल खिलाकर हसना, ताली बजाना, उछालना आदि आदि. बीच बीच में मम्मी देखो, मम्मी देखो ना की आवाजें भी आ जातीं.

गड़ गड़ गड़ गड़ गड़. आवाज़ सुनकर अचानक लल्ला डर गया. फिर संभलकर मुस्कुराया और बोला- क्युटू! तुझे पता है ये किसकी आवाज़ है??

तुझसे ज्यादा पता है, तेज़ तर्रार क्युटू ने जवाब दिया.

तो बताओ क्या पता है?

बादल गरज रहे हैं, उल्लू!!

बादल क्यों गरजते हैं??

अरे तुझे नहीं पता? जब कोई खेलते वक्त चीटिंग करता है ना भगवान् जी उसको बहुत सारे मुक्के मार्ते है, इसलिए वो आवाज़ बादल गरजने जैसी होती है उल्लू!!

अरे तो छिपकली ये भी बता दे फिर बरसात  कैसे होती है?

तू उल्लू ही रहेगा. जब भगवान् जी किसी को मारेंगे तो वो रोयेगा नहीं क्या!! भगवान् जब किसी को ज्यादा मारता है ना तो ज्यादा आंसू निकलते है और वो हमें बरसात दिखती है....

छिपकली तू फैंकती बहुत है पता तो कुछ है नहीं. ए ए ए ए ए  (मुंह बनाकर चिढ़ता है)

इ इ इ इ इ इ ....(क्युटू भी चिढाती है)
फिर बादल गरजते है. पानी बरसना शुरू हो जाता है. दोनों नटखट बच्चे एक तरफ छिपकर बरसात को देखने लगते हैं. क्युटू को भीगने का बहुत शौक है. बोलती है-

अरे लल्ला! चल चल भीगते है. मज़ा.. आएगा...
नहीं, मम्मी डांटेगी....
अरे नहीं डांटेगी यार, तू डरता क्यों है मैं हु ना बिजली!!!
तू रहने दे. तू ही भीग ले. मैं नहीं भीगता बरसात के पानी में.
तू उल्ल्लू ही रहेगा. इ इ इ इ इ ..चिढाकर क्युटू अकेली ही भीगने लगती है. आपने दोनों हाथ और मुह आसमान में उठाकर धीरे धीरे मयूरी की तरह गोल गोल घुमने लगती है. बारिश की रिम्झिम रिमझिम बूंदें  उसके मुख पर गिर रही हैं.  नन्हे नन्हे उलझे केश मानो नन्ही घटा उतर आई हो.  श्वेत मुख भीगने के बाद मनो बर्फ की चादर ओढ़े हो...और ऊपर से कोयल की सी मीठी आवाज़ में ताली बजाकर हँसना, मानो सावन नृत्य कर रहा हो और कोयल गुनगुना रही हो....

लल्ला उसे इतराते हुए देखकर चिढ जाता है. पास ही पड़ी किताब का एक पन्ना फाड़कर कुछ बनाने लगता है. क्युटू को दिखाकर कहता है-

छिपकली! तू भीगती ही रहना. पर जब बाढ़ आएगी ना तो मैं तुझे मेरी नाव में नहीं बैठाऊंगा...

तो उल्लू तू भी भीगले.... फिर हम दोनों मिलकर बड़ी नाव बनायेंगे....

नहीं. मैं अकेला ही नाव बनाऊंगा और तुझे बिठाऊंगा भी नहीं...

क्यों नहीं बिठाएगा??? मैं तेरी बहन नहीं हूं क्या..!!!

जब  नाव चलेगी ना तब नहीं रहोगी.. फिर वापस बन जाना.......
ठीक है...(क्युटू का चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है) अगर तू नहीं बिठाएगा तो हम तेरी नाव तोड़ देंगे....

कैसे तोड़ देगी??? तोड़ कर दिखा!!! कहकर लल्ला जोर से हंसता है....हा हा हा हा हा.....

क्युटू के दिमाग में मानो बिजली गिरी हो.  वो पूरी ताकत लगाकर तैरती हुई नाव को लात मारती है. लल्ला की नाव पानी में डूब जाती है. लल्ला रोने लगता है. मानो वह नाव उसने कड़ी मेहनत से बनाई थी. जैसे वह सच में उसमे बैठकर बाढ़ से बच जाता. वह खुले आसमान में खडा होकर चुप चाप रोने लगता है.उसकी आँखे बरसात का पूरा साथ दे रही हैं...ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं..........

क्युटू  उसे एकटक देखे जा रही है. मनाने के लिए लल्ला का हाथ पकड़कर धीरे से खिंचती है...लेकिन लल्ला अभी भी रोने का मज़ा ले रहा है...सॉरी......!!! कहकर क्युटू खुद भी रोने लग जाती है......

रोते रोते दोनों अचानक सड़क पर बहता पानी एक दूसरे  के ऊपर फेंकने लगते हैं. फिर दोनों हंस  पड़ते  हैं अपने अपने अंदाज़ में......
हे  हे  हे  हे  हे  हे ............
हा हा हा हा हा............

और दोनों ने शुरू किया फिर से भीगना, उछलना ....बरसात की पुरवाई में सावन की अंगडाई  में.  पानी गुन गुना रहा था...छप छप छप छप....खिड़की से सब कुछ देख रहे उनके मम्मी पापा मुस्कुरा देते हैं मानो उनका सावन जीत गया हो..........

धन्यवाद्   

Tuesday, May 11, 2010

चलन

एक बहन, एक बेटी
नन्हे कदमो से
ठुमकते, चलते
वक्त के गुजरते गुजरते
अठाकेलियाँ  करते करते
लड़ते झगड़ते
एक दिन हो जाती है
बड़ी.

इतनी बड़ी कि चली जाती है
किसी नए घर में
बेटी बनकर
और उसका अपना घर
पराया तो नहीं पर
अपना भी नहीं रह जाता.

और उसके अपने घर में
चली आती है एक नई बेटी
जो कुछ अरसे बाद
ले लेती है उसकी जगह.

इसी तरह गुजरते गुजरते
कुछ दिन, महीने और सालो बाद
हो जाता है उसका
पराया, अपना
और
अपना, पराया

कुछ तो इसको
त्याग कहेंगे
और कुछ कहेंगे
संसार का चलन!!!

Wednesday, April 7, 2010

मेरी ही गुस्ताखियाँ

चला ही जा रहा हूं मैं न मालूम रास्ता है किधर
भटकाए जा रही है मेरी ही गुस्ताखियाँ

छा रही है हर तरफ लफ़्ज़ों की खामोशियाँ
जुबाँ न हिलने देती हैं मेरी ही गुस्ताखियाँ

न दिन को चैन मिलता है न रातों को करार
ख्वाब अधूरे दिखला रही हैं मेरी ही गुस्ताखियाँ

ना दिल में कोई बात है न लबों पर अलफ़ाज़
अश्कों से ख़त लिखवा रही हैं मेरी ही गुस्ताखियाँ!!!

Monday, April 5, 2010

काहे को दुनिया बनाई???(गुस्ताखी माफ़)

अभी कल ही एक शेर सुनने को मिला.."सोचता हूं देखकर दुनियां के रंज-ओ- गम, या खुदा क्या जरुरत थी तुझे दुनिया बनाने की"...... कहने वाले ने एकदम सटीक बात कही है. जब इश्वर सर्वशक्तिमान है, उसे ब्रह्माण्ड की कोई चीज़ अप्राप्य नहीं है, उसे कोई दुःख नहीं है कोई सुख नहीं है, फिर ऐसी क्या नौबत आ गई कि ऊपर वाले ने दुनिया बना डाली??

इसके पीछे एक कारण नज़र आता है हो सकता है आप में से बहुमत इससे सहमत ना हो. मेरा ऐसा मानना है कि करोडो वर्ष पहले भगवन ने कुछ काम करना शुरू किया होगा. काम करते करते वो बोर हो गए होंगे. फिर उन्होंने सोचा होगा यार नौकरी अच्छी नहीं है. कमबख्त लाइफ का एडवेंचर ही खत्म हो गया. कुछ यूनीक करते हैं. फिर उन्होंने सुझाऊ आमंत्रित किये होंगे और किसी ने सलाह दी होगी कि यार भगवान् आप एक काम करो,  एक दुनिया बनालो. फिर उसमे अलग अलग तरह के बहुत सारे जीव जंतु बना लेना और ज्यादा एडवेंचर चाहिए तो इंसान नाम का जीव बनाना. आपका टाइम अच्छे से पास हो जाएगा. तो भगवन ने पृथ्वी बनाई जो एक कंप्यूटर सॉफ्टवेर कि तरह है. निर्धारित तरह का कोड (गतिविधि) देने में निर्धारित प्रोग्राम काम करेगा..आदि आदि. फिर एक्सपेरिमेंट करते करते भगवन ने पृथ्वी को एक सॉफ्टवेर गेम की तरह अपग्रेड कर दिया. अब वह रोज इससे गेम खेलता रहता है और नौकरी बड़े रोमांच के साथ करता है. अब इस दुनिया के प्रति विद्वानों के अलग अलग मत रहे हैं. किसी ने इसको रंगमंच बताया तो किसी ने कागज़ की पुडिया....पर कुछ भी कहो ये दुनिया है बड़ी मजेदार चीज़.

हो सकता है बहुत सारे विद्वानों ने ब्लॉग भी इस उद्देश्य से बनाये हों. पर हाँ, निस्संदेह! ब्लॉग बनाने के बाद लाइफ का रोमांच थोडा बढ़ गया है. (आपकी मुस्कराहट से लगता है आप इस बात से सहमत हैं).......

अब आप ही बताइए, भगवान ने दुनिया बनाके कोई गलती की है क्या?????????

Thursday, April 1, 2010

कौन हो तुम मेरे

कल तक मेरे जाने के नाम से भी भरती थीं तुम सिसकियाँ
आज बड़ी बेदर्दी से कहती हो............
कौन हो तुम मेरे!

तेरे लबों कि हरारत ने किया था कैद मुझको
उन्ही लबों से तुम आज कहती हो........
कौन हो तुम मेरे!

तेरी आँखों की शरारत ने डुबोया था मुझको
बेहया सी नज़रें चुराकर तुम आज कहती हो.........
कौन हो तुम मेरे!

तेरे वजूद कि करीबी ने जीना सिखाया था मुझको
दूर जाकर तुम आज कहती हो...........
कौन हो तुम मेरे!

तेरी खुली खुली जुल्फों के साए ने सोना सिखाया था मुझको
जुल्फों को समेटकर तुम आज कहती हो......
कौन हो तुम मेरे!

कल तक मेरी खुशबू , मेरी आहटों से पहचानती थीं तुम मुझको
अजनबी सी बनकर तुम आज कहती हो ........
कौन हो तुम मेरे!!!

Monday, March 29, 2010

सीटी बजैले जम के पिया......(गुस्ताखी माफ़)

अभी सन्डे को सुबह सुबह हम वैले ही रोज की तरह गली से गुजर रहे थे. गली के नुक्कड़ वाली चाय की थडी के पास आठ दस लोगो में जोर शोर से गुफ्त गूं चल रही थी. एक बुजुर्ग चाचा से हमने ऐसे ही पूछ लिया-चाचा ऐसा क्या ज्वलंत मुद्दा छाया हुआ है अभी तो चुनाव भी निकल गए. वो बोले - देखो बेटा, अभी हाल ही में कोई महिला 'संरक्षण' नामक बिल पास हुआ है तो उसी की चर्चा है और हम बुजुर्ग तो एक नेताजी की बात का कि "अगड़ों कि बेटियां संसद में आएँगी और लड़के उन्हें देखके पीछे से सीटी बजायेंगे", से पूरी तरह सहमत है. तुम बताओ बेटा. तुम तो नौजवान हो. हम सही कह रहे हैं कि नही?

मैंने कहा-देखो चाचा हम तो इस विधेयक से बहुत खुश हैं कि देश की महिलायें भी राजनीति में आएँगी तो आगे तो बढेंगी ही. पर अफ़सोस बस इतना है कि हम उन्हें 'आरक्षण' देकर कमजोर बना रहे हैं. जिसे एक बार बैसाखी के सहारे चलने कि आदत हो जाती है वो दौड़ में कभी विजेता नहीं बन पाता. खैर छोड़िए, इतनी बड़ी बड़ी बाते करना हमारे लिए छोटा मुंह बड़ी बात होगी. रही बात सीटी की तो उससे भी हमें कोई एतराज नहीं है. चाचा एक बात बताओ-आपके घर में बिटिया है कि नहीं?? चाचा बोले- हाँ है, पर तू उसके लिए क्यों पूछ रहा है? हमने कहा-चाचा नाराज़ मत होइए, हम तो बस इतना कह रहे हैं कि प्रेशर कूकर उसको देखके सीटी बजाता है कि नहीं!!! देखो चाचा, महिलाओं के राजनीति में आने के अनेक फायदे हैं जैसे-संसद का माहोल हरा भरा रहेगा. गाली गलोच बंद हो जायेंगे. सदन से नेताओं का बहिर्गमन नहीं होगा. नेता अपनी हाजरी पूरी देंगे. संसद में भी कॉलेज जैसा माहोल रहेगा. वही कही बगल में कैंटीन खुल जाएगी तो डेटिंग कि समस्या भी ख़त्म. एक बड़ा फायदा ये भी है कि संसद के आस पास बाजार डेवेलप हो जाएगा. होकर जोर जोर से चिल्लायेंगे-लिपस्टिक लेलो...., काजल लेलो....., कंघा लेलो....., आइना लेलो..... आदि आदि.  अब जहां महिलाओं का बाज़ार होगा पुरुष तो लम्बी दूरी होने के बावजूद वही से गुजरेंगे चाहे घर जाने में लेट हो जाएँ. अब जहां पब्लिक होगी बाजार का विकास तो होना ही है और लगे हाथ देश में आर्थिक मंदी कि समस्या भी ख़त्म. इतना सुनकर चाचा मुस्कुराने लगे. बोले - बेटा तुम बात तो सही कह रहे हो. अभी जाकर तेरी चची को सीटी बजाता हूं. चाचा गुनगुनाने लगे...."बीड़ी जलैले जिगर से पिया..............जिगर मा बड़ी आग है...आग है........."!!!!!!

Friday, March 26, 2010

रिश्तों की परिभाषा

भ्रम में है ये दुनिया
बांटती रहती है ज्ञान
ब्रह्म, धर्म और कर्म का
पर न कर पाई है
सदियों बाद भी
परिभाषित
रिश्तों को.

सीमित कर लेती है
माता-पिता, भाई-बहिन
पति-पत्नी या दोस्त जैसे
प्राकृतिक बन्धनों तक ही
रिश्तों को.

वरना क्या नहीं होता?
रिश्ता,
पेड़ और छांव का
तारों और ग्रहों का
ग्रहों और उपग्रहों का
नदिया और किनारों का
जो निभाते चले आ रहे हैं
सृष्टि के सृजन से
और निभाएंगे भी
निर्वाण तक
रिश्तों को.

रिश्ता तो होता है
दुश्मनों के बीच भी
"दुश्मनी" का!
फिर क्यूँ न जोड़ें हम
भावनाओं और संवेदनाओं से भी
रिश्तों को?

और बना लें
"वसुधा-एव-कुटुम्बकम" को ही
रिश्तों की परिभाषा!!!

Monday, March 15, 2010

एक अनकहा सा प्यार

Friends, this is the first story, I have ever written. Everything in the story is fictitious though it may seem like some 'aap beeti'....just enjoy this sentimental beautiful story:

सुबह के साढ़े नो बजे मैं हमेशा कि तरह अपने ऑफिस में पंहुचा. घडी अपने निर्धारित समय से दस मिनट ज्यादा दिखा रही थी. मन ही मन लग रहा था आज कुछ हटके होने वाला है. कुछ अजीब सा अहसास मन में लिए मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया था. फिर अपना ईमेल चेक किया.  आज फिर उसी का ईमेल आया था जिसका मुझे पिछले कई महीनो से इंतज़ार था.

आज उसने अपने दिल के सारे उदगार उसमे उतार दिय थे, एक छोटी सी अनकही सी प्रेम कहानी के साथ. ख़त में हमारे डेढ़ महीने के साथ की यादें साफ झलक रही थी जब उसने और मैंने एक ही ऑफिस में काम किया था. कुछ हसीं ठिठोलियाँ हो जाया करती थी, चंद चुटकुले और कुछ मस्ती भरे शेर. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं था. पर आज का उसका ख़त अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था और एक अनकहा सा प्यार अपने आप में समेटे हुआ था.

लिखा था:-"क्या कोई किसी से सिर्फ डेढ़ महीने के साथ में ही इतना प्यार कर सकता है? क्या तुमने मुझे ठीक से पहचान लिया था? और तुमने इतने से दिनों में ही मेरे बारे में इतना बड़ा क्यों सोच लिया था? मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ अजनाबी थी न! फिर हमारा तो मज़हब भी अलग था! हम पहले कभी मिले भी तो नहीं थे! ना कभी साथ पढ़े, न खेले, न देखा!

फिर तुम मुझे देखकर इतना कयूँ  मुस्कुराते थे? बात बात पर मुझे हसाने कि कोशिश क्यों करते थे? मुझे हँसते देख तुम्हे बहुत अच्छा लगता था न!. फिर मुझे छोड़कर मुंबई क्यूँ चले गए थे? क्या तुम्हारे लिए नौकरी मुझसे भी ज्यादा जरुरुई थी? मैं तुमसे ऐसा तो नहीं चाहा था! चलो मान लेती हूं तुम्हारी भी कोई मजबूरी रही होगी! पर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि मुझसे मिलना तो दूर एक फ़ोन तक नहीं किया. क्या कभी  सोचा मैंने तुम्हारे बिना कैसे खुद को समझाया? तुम्हारी याद को छुपाने के लिए मैंने  अपनी सहेलियों से एक्साम कि टेंशन के बहाने बनाये . तुम्हारी तस्वीर को हमेशा दिल में छुपाये रखा ताकि मेरी भीगी आँखों में झांककर कोई पहचान ना ले कि इनमें कही ना कही तुम्हारी सूरत और इंतज़ार छिपा है.

फिर तुम्हारा २५ मार्च २००८ का वह ईमेल जिसमे तुमने मोहब्बत को जाहिर करने कि अल्ल्हड़ खता की थी. उसमे तुम्हारी पंक्तियाँ -"भोली सी इन आँखों ने फिर इश्क  कि जिद कि है, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है". उसमे लिखा तुम्हारा एक एक शब्द मेरी धड़कने बढ़ा रहा था. साँसे असंतुलित सी हो रही थी. हाथ पैर कांपने लगे थे. दिमाग काम करने कि हालत में नहीं रहा था. तुम्हारा वह ख़त मुझे सदमा सा पहुचने वाला था. क्युकी मुझे तुम्हारे सीधेपन को देखते हुए इसकी कभी उम्मीद नहीं थी. माना कि दिल के किसी कोने में मैंने तुम्हे बसा के रखा था. और ऐसे ही तुम्हारे इज़हार भरे किसी ख़त का मुझे इंतज़ार था. तुम्हारा वह ख़त पाकर मुझे लगा था शायद मेरा सोमवार का व्रत सफल हो गया है. और कुछ देर बाद मैंने सोच लिया था तुम्हे ख़त लिखकर तुम्हारे प्यार को स्वीकार करलूं और मेरे नाम के पीछे से 'जी' से शब्द हटाने का अधिकार तुम्हे दे दू. मैंने तुम्हे अंगीकार करने का फैसला कर लिया था. और तुम्हे अपना जवाब देने ही वाली थी.

फिर अगले ही पल तुम्हारा दूसरा ईमेल मिला जिसमें तुमने लिखा था कि जो तुमने अब तक कहा वो मज़ाक था. तुम मुझे चिरकुट बना रहे थे. वह सब अप्रैल फूल बनानके के लिए किया था. तुम्हारे उस दुसरे ख़त ने मुझे और भी गहरा सदमा दिया. मैं उस दिन पूरी तरह बिखर चुकी थी. मेरा रोम रोम पीड़ा कि आग में जल रहा था.मेरे चेहरे पर आई अचानक पसीने कि बुँदे बहुत कुछ बयान कर रही थी. फिर बार बार के तुम्हारे तर्क वितर्क से मैं हार चुकी थी. मैंने मान लिया था कि वो तुम्हारा एक मज़ाक ही था और अब वो ख़तम हो चूका है. मैं अपने अर्मानो  का गला घोंट चुकी थी. बार बार खुद को कोस रही थी कि पांच लम्हों पहले अगर तुम्हे जवाब दे देती तो शायद इस तरह बिखरने से बच जाती. तुम्हारे उस ख़त को मैं मीठा ज़हर समझकर पी गई थी. और उसके बाद आज जब डेढ़ साल गुज़र चूका है तुम्हे भुलाने में काफी हद तक सफल रही हूं.

आज फिर तुम्हारा ईमेल मिला. तुमने लिखा है:-"मैंने कब कहा कि तू मिल ही जा मुझे पर गैर ना हो मुझसे तू बस इतनी हसरत है तो है". और कि तुम्हारा वो ख़त मज़ाक नहीं प्यार का इजहार ही था. आज फिर मुझे सोचने पर मजबूर किया. लेकिन इसने मुझे उतना गहरा सदमा नहीं दिया. तुम्हारे जख्म खा खाकर मैं अब कठोर हो चुकी थी. आज के तुम्हारे ख़त का मेरे पास सपष्ट जवाब था. अब तुम मेरे लिए एक अबूझ पहेली बन चुके हो. मैंने तुम्हारा डेढ़ साल तक इंतज़ार किया. परन्तु तुमने वफ़ा नहीं कि और मैं बावफा होकर भी बेवफा बन गई. अब तुम मेरे लिए एक गैर हो, मैं किसी और कि होने वाली हूं. मेरी अब से तीन दिन बाद अपने ही पुराने किसी क्लास मेट से शादी होने वाली है. शायद तुमने वो मज़ाक नहीं बनाया होता तो आज भी मुझ पर सिर्फ तुम्हारा हक़ था. मगर अब बहुत देर हो चुकी है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना".

अब उसका ख़त ख़त्म हो चूका था और मुझे भी अपना जवाब मिल गया था. मेरी अपनी खाई हुई चोटें गहरी होती जा रही थीं. मेरी भावनाएं ताश के पत्तों कि तरह बिखर चुकी थीं. मैं ऑफिस से बाहर निकलकर आसमान में झाँकने लगा था. लग रहा था मानो पक्षी उड़ना भूल चुके हैं. हवा थम सी गई है. आसमान सिकुड़ चूका है. पेढ़ रूखे हो चुके हैं. चारो तरफ शान्ति छाई हुई है और एक वीरान दुनियां में मैं सिर्फ अकेला खड़ा हूं. लग रहा है जैसे सूरज हमेशा के लिए डूब चूका है. मेरा साया ही मुझसे कह रहा था.."अब कुछ नहीं साथ मेरे बस हैं खताएं मेरी". और मुंह से सिसकियों के साथ महज़ कुछ लफ्ज़ निकले जा रहे थे.."क्या तुम इतनी भी नादाँ थी कि न समझ सकीं ऐसा मज़ाक भी कोई करता है भला???

Thursday, March 4, 2010

सच्चाई

सच्चाई

मेरा अपना आइना
जो है आयताकार
रहता है
शांत
धर्मराज की तरह

मैं इस उम्मीद से कि
दिखायेगा मुझे अपना
असली प्रतिबिम्ब
जाता हूं उसके पास

परन्तु
वह दिखाता है
हर बार अलग तस्वीर
उत्तर से देखने पर अलग
दक्षिण से देखने पर अलग
पूरब से अलग पश्चिम से भी अलग

बदल जाता है वह भी
कोण के बदलने के साथ ही
और मैं
अर्थ निकाल लेता हूं
कि नहीं दिखाता आइना
एक असली तस्वीर

तो क्या यही है?
जीवन कि भी सच्चाई!

Wednesday, February 24, 2010

होली

होली निस्संदेह भारत में एक विख्यात परवा है और पुरे जोश के साथ मनाया जाता है. इसकी शुरुअत को लेकर अलग अलग तरह की धार्मिक मान्यताएं हैं. इन सबके साथ साथ मैं इसके पीछे एक कारण और मानता हूँ जो पढने, सुनने में हो सकता है हास्यास्पद लगे. चूँकि फ़रवरी माह के अंत तक सर्दी कम हो जाती है तो किसी ने यह दिखाने के लिए की सर्दी कम हो गई, जान बुझकर पानी में भीग गया होगा. और उसने किसी दुसरे व्यक्ति को भिगो दिया होगा. फिर उस दुसरे ने पहले के ऊपर मिटटी दाल दी होगी और उसके बाद पहले ने दुसरे के ऊपर मिटटी डाल  दी होगी. और उनको देख किसी और ने भी ऐसा ही किया होगा. जब इस तरह से बहुत लोग इकट्ठे हुए होंगे तो उन्होंने ढोल नगाड़े बजायेंगे होंगे और जोश ही जोश में नृत्य भी किया होगा और आनंद लिया होगा. धीरे धीरे वर्ष पर्यंत ऐसा हुआ होगा तो लोगों ने सोचा होगा की ये परमपरा है. तो वो इसे आगे भी मनाते चले आये. और यह एक त्यौहार बन गया. कालान्तर में धुल मिटटी का स्थान रंग और गुलाल ने लेलिया. और इसी तरह होली सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक ही दिन मनाया जाता है. इसका वैज्ञानिक कारण ये भी है की पुरे भारत में सर्दी एक साथ ख़त्म होती है तो ये सर्दी के जाने और गर्मी के आने के संकेत के रूप में जश्न के साथ मनाया जाता है और सन्देश देता है की भाई लोगों अब सर्दी गई, जमके नहाओ........निस्संदेह मैं पौराणिक कथाओं को भी मानता हूँ. और इसी के साथ होली का शुभ सन्देश...
झूम के खेलो होली
रंगों से रंगों रंगोली

मन की मिटटी हटाओ
प्रेम की मिटटी लगाओ

जो प्यार से समझे समझा दो
वरना धुल मिटटी में लिपटा दो

और जोश से बोलो....सारी बात मखोली है....बुरा न मनो होली है!!!!!!!
होली है...............डन डाना डन डन  डन डाना डन डन डन डाना डन डन
धूम मचले धूम मचले धूम
होली HAIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII

Friday, February 19, 2010

कैसे कैसे सपने पलकों में संजो लेते हैं लोग
एक हम हैं की आंख में तिनका लिए फिरते हैं!
क्या क्या नहीं पी जाते लोग चुस्कियों में
हम तो सिसकियों में अक्सर यादें पिया करते हैं!!
जब हर बात, मोके और लम्हों में हंसा करता हूं मैं
फिर मेरे शेरों में दर्द के सिवा कुछ और क्यूँ नहीं होता!!!
चाहता हूं तेरी हर अदा पर ग़ज़ल कहूँ
मगर मेरे लफ्जों में तुझ जैसी खूबसूरती कहाँ!!!
हज़ारों विरानियाँ हैं मेरी तन्हाइयो के साथ
जहां मेरी परछाई होती है मैं नहीं!!!

Wednesday, February 17, 2010

अभिव्यक्ति

अभिव्यक्ति

क्या है अभिव्यक्ति ?
पूछता है मेरा मन
जब भी उकेरना चाहता हूं
मन के उदगार
कलम से कागज़ पर

अभिव्यक्ति है आत्मा की आवाज़
भावनाओं का संगम
विचारों का द्वंद्व
सफ़र का आगाज़

अभिव्यक्ति है वीणा की झंकार
स्वरों का सुर
प्रकृति का वात्सल्य
ब्रह्मा की रचना
शिव का नृत्य
विष्णु का उपहार

अभिव्यक्ति है मृदंग की धुन
सत्य का सामर्थ्य
असत्य का प्रतिकार
प्रेम का आधार
सुरों का व्यवहार

अभिव्यक्त करता है
हर कोई
चाहे सजीव हो या निर्जीव
मानव हो या अमानव
देव हो या दैत्य

अभिव्यक्ति ही जोड़ती है
ब्रह्माण्ड को
नक्षत्रों को तारों को
एक सूत्र में पाये रखती है
अभिव्यक्ति

ये वरदान है सरस्वती का
जो कराती है मेल दिलों का
हटाकर मेल दिलों का
और प्रेमालिप्त हृदयों को
प्रदान करती है स्वच्छंदता
अभिव्यक्ति ,
एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति!!!

देवेन्द्र शर्मा (कंपनी सेक्रेटरी)
date: 17/02/2010

आंसू

आंसू

एक लम्बे अरसे के बाद
जब हम तुम मिले
फिर अजनबी की तरह
लिए भार हृदय में बिसरी यादों का

मिलती रही नज़रें कुछ पलों के लिए
लगा जैसे
आज भी सब कुछ मेरा अपना है
आज भी है 
इन आँखों में इंतज़ार मेरे लिए
किये वादों को निभाने का

तभी,
एक तीखी मधुर आवाज़ में
किसी का तुम्हे मां पुकारना
तुम्हारा उसे गोद में उठाना
और सर झुकाए जाने के लिए मुड़ना
ले आया मेरी आंख में 
फिर एक आंसू!!!

देवेन्द्र शर्मा (कंपनी सचिव) 


Friday, January 8, 2010

शोक

वक्त चलता है 
अपनी रफ़्तार से
वह न कभी हांफता है
न कभी सुस्ताता.

पर दुनिया दौड़ती है
उसी के पीछे
सोचती है की हरा देगी
वक्त की गति को भी

और फिर हार जाती है
खुद दुनिया
और मनाने लग जाती है 
शोक
किसी और के निकल जाने का
खुद से भी आगे

मैं भी दौड़ा कुछ घडियों तक
फिर थका, हारा और बैठ गया
सुस्ताकर किसी रूखे वृक्ष के नीचे
कुछ आंसू भी बहाए
पर वो भी रुसवा हो गए
कुछ लम्हों के बाद

फिर भी मैं चला
चंद कदम और
पर शाम की दस्तक 
और बुझती रौशनी में
मेरा साया भी 
छोड़ गया साथ 

वक्त चलता रहा अपनी गति से
अकेला
मैं कभी दौड़ा कभी चला
कभी हमसफ़र मिले कभी बिछड़े 
कुछ हँसे, कुछ रोये और सिसके

जब इस दौड़ में सिर्फ
खोना, पाना और फिर खोना ही है
तो फिर क्यूँ मनाया जाये
बरबादियों का
शोक!!!

कृति: देवेन्द्र शर्मा (कंपनी सचिव)
deven238cs@gmail.com
दिनांक: 07.01.2010