Monday, March 29, 2010

सीटी बजैले जम के पिया......(गुस्ताखी माफ़)

अभी सन्डे को सुबह सुबह हम वैले ही रोज की तरह गली से गुजर रहे थे. गली के नुक्कड़ वाली चाय की थडी के पास आठ दस लोगो में जोर शोर से गुफ्त गूं चल रही थी. एक बुजुर्ग चाचा से हमने ऐसे ही पूछ लिया-चाचा ऐसा क्या ज्वलंत मुद्दा छाया हुआ है अभी तो चुनाव भी निकल गए. वो बोले - देखो बेटा, अभी हाल ही में कोई महिला 'संरक्षण' नामक बिल पास हुआ है तो उसी की चर्चा है और हम बुजुर्ग तो एक नेताजी की बात का कि "अगड़ों कि बेटियां संसद में आएँगी और लड़के उन्हें देखके पीछे से सीटी बजायेंगे", से पूरी तरह सहमत है. तुम बताओ बेटा. तुम तो नौजवान हो. हम सही कह रहे हैं कि नही?

मैंने कहा-देखो चाचा हम तो इस विधेयक से बहुत खुश हैं कि देश की महिलायें भी राजनीति में आएँगी तो आगे तो बढेंगी ही. पर अफ़सोस बस इतना है कि हम उन्हें 'आरक्षण' देकर कमजोर बना रहे हैं. जिसे एक बार बैसाखी के सहारे चलने कि आदत हो जाती है वो दौड़ में कभी विजेता नहीं बन पाता. खैर छोड़िए, इतनी बड़ी बड़ी बाते करना हमारे लिए छोटा मुंह बड़ी बात होगी. रही बात सीटी की तो उससे भी हमें कोई एतराज नहीं है. चाचा एक बात बताओ-आपके घर में बिटिया है कि नहीं?? चाचा बोले- हाँ है, पर तू उसके लिए क्यों पूछ रहा है? हमने कहा-चाचा नाराज़ मत होइए, हम तो बस इतना कह रहे हैं कि प्रेशर कूकर उसको देखके सीटी बजाता है कि नहीं!!! देखो चाचा, महिलाओं के राजनीति में आने के अनेक फायदे हैं जैसे-संसद का माहोल हरा भरा रहेगा. गाली गलोच बंद हो जायेंगे. सदन से नेताओं का बहिर्गमन नहीं होगा. नेता अपनी हाजरी पूरी देंगे. संसद में भी कॉलेज जैसा माहोल रहेगा. वही कही बगल में कैंटीन खुल जाएगी तो डेटिंग कि समस्या भी ख़त्म. एक बड़ा फायदा ये भी है कि संसद के आस पास बाजार डेवेलप हो जाएगा. होकर जोर जोर से चिल्लायेंगे-लिपस्टिक लेलो...., काजल लेलो....., कंघा लेलो....., आइना लेलो..... आदि आदि.  अब जहां महिलाओं का बाज़ार होगा पुरुष तो लम्बी दूरी होने के बावजूद वही से गुजरेंगे चाहे घर जाने में लेट हो जाएँ. अब जहां पब्लिक होगी बाजार का विकास तो होना ही है और लगे हाथ देश में आर्थिक मंदी कि समस्या भी ख़त्म. इतना सुनकर चाचा मुस्कुराने लगे. बोले - बेटा तुम बात तो सही कह रहे हो. अभी जाकर तेरी चची को सीटी बजाता हूं. चाचा गुनगुनाने लगे...."बीड़ी जलैले जिगर से पिया..............जिगर मा बड़ी आग है...आग है........."!!!!!!

Friday, March 26, 2010

रिश्तों की परिभाषा

भ्रम में है ये दुनिया
बांटती रहती है ज्ञान
ब्रह्म, धर्म और कर्म का
पर न कर पाई है
सदियों बाद भी
परिभाषित
रिश्तों को.

सीमित कर लेती है
माता-पिता, भाई-बहिन
पति-पत्नी या दोस्त जैसे
प्राकृतिक बन्धनों तक ही
रिश्तों को.

वरना क्या नहीं होता?
रिश्ता,
पेड़ और छांव का
तारों और ग्रहों का
ग्रहों और उपग्रहों का
नदिया और किनारों का
जो निभाते चले आ रहे हैं
सृष्टि के सृजन से
और निभाएंगे भी
निर्वाण तक
रिश्तों को.

रिश्ता तो होता है
दुश्मनों के बीच भी
"दुश्मनी" का!
फिर क्यूँ न जोड़ें हम
भावनाओं और संवेदनाओं से भी
रिश्तों को?

और बना लें
"वसुधा-एव-कुटुम्बकम" को ही
रिश्तों की परिभाषा!!!

Monday, March 15, 2010

एक अनकहा सा प्यार

Friends, this is the first story, I have ever written. Everything in the story is fictitious though it may seem like some 'aap beeti'....just enjoy this sentimental beautiful story:

सुबह के साढ़े नो बजे मैं हमेशा कि तरह अपने ऑफिस में पंहुचा. घडी अपने निर्धारित समय से दस मिनट ज्यादा दिखा रही थी. मन ही मन लग रहा था आज कुछ हटके होने वाला है. कुछ अजीब सा अहसास मन में लिए मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया था. फिर अपना ईमेल चेक किया.  आज फिर उसी का ईमेल आया था जिसका मुझे पिछले कई महीनो से इंतज़ार था.

आज उसने अपने दिल के सारे उदगार उसमे उतार दिय थे, एक छोटी सी अनकही सी प्रेम कहानी के साथ. ख़त में हमारे डेढ़ महीने के साथ की यादें साफ झलक रही थी जब उसने और मैंने एक ही ऑफिस में काम किया था. कुछ हसीं ठिठोलियाँ हो जाया करती थी, चंद चुटकुले और कुछ मस्ती भरे शेर. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं था. पर आज का उसका ख़त अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था और एक अनकहा सा प्यार अपने आप में समेटे हुआ था.

लिखा था:-"क्या कोई किसी से सिर्फ डेढ़ महीने के साथ में ही इतना प्यार कर सकता है? क्या तुमने मुझे ठीक से पहचान लिया था? और तुमने इतने से दिनों में ही मेरे बारे में इतना बड़ा क्यों सोच लिया था? मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ अजनाबी थी न! फिर हमारा तो मज़हब भी अलग था! हम पहले कभी मिले भी तो नहीं थे! ना कभी साथ पढ़े, न खेले, न देखा!

फिर तुम मुझे देखकर इतना कयूँ  मुस्कुराते थे? बात बात पर मुझे हसाने कि कोशिश क्यों करते थे? मुझे हँसते देख तुम्हे बहुत अच्छा लगता था न!. फिर मुझे छोड़कर मुंबई क्यूँ चले गए थे? क्या तुम्हारे लिए नौकरी मुझसे भी ज्यादा जरुरुई थी? मैं तुमसे ऐसा तो नहीं चाहा था! चलो मान लेती हूं तुम्हारी भी कोई मजबूरी रही होगी! पर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि मुझसे मिलना तो दूर एक फ़ोन तक नहीं किया. क्या कभी  सोचा मैंने तुम्हारे बिना कैसे खुद को समझाया? तुम्हारी याद को छुपाने के लिए मैंने  अपनी सहेलियों से एक्साम कि टेंशन के बहाने बनाये . तुम्हारी तस्वीर को हमेशा दिल में छुपाये रखा ताकि मेरी भीगी आँखों में झांककर कोई पहचान ना ले कि इनमें कही ना कही तुम्हारी सूरत और इंतज़ार छिपा है.

फिर तुम्हारा २५ मार्च २००८ का वह ईमेल जिसमे तुमने मोहब्बत को जाहिर करने कि अल्ल्हड़ खता की थी. उसमे तुम्हारी पंक्तियाँ -"भोली सी इन आँखों ने फिर इश्क  कि जिद कि है, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है". उसमे लिखा तुम्हारा एक एक शब्द मेरी धड़कने बढ़ा रहा था. साँसे असंतुलित सी हो रही थी. हाथ पैर कांपने लगे थे. दिमाग काम करने कि हालत में नहीं रहा था. तुम्हारा वह ख़त मुझे सदमा सा पहुचने वाला था. क्युकी मुझे तुम्हारे सीधेपन को देखते हुए इसकी कभी उम्मीद नहीं थी. माना कि दिल के किसी कोने में मैंने तुम्हे बसा के रखा था. और ऐसे ही तुम्हारे इज़हार भरे किसी ख़त का मुझे इंतज़ार था. तुम्हारा वह ख़त पाकर मुझे लगा था शायद मेरा सोमवार का व्रत सफल हो गया है. और कुछ देर बाद मैंने सोच लिया था तुम्हे ख़त लिखकर तुम्हारे प्यार को स्वीकार करलूं और मेरे नाम के पीछे से 'जी' से शब्द हटाने का अधिकार तुम्हे दे दू. मैंने तुम्हे अंगीकार करने का फैसला कर लिया था. और तुम्हे अपना जवाब देने ही वाली थी.

फिर अगले ही पल तुम्हारा दूसरा ईमेल मिला जिसमें तुमने लिखा था कि जो तुमने अब तक कहा वो मज़ाक था. तुम मुझे चिरकुट बना रहे थे. वह सब अप्रैल फूल बनानके के लिए किया था. तुम्हारे उस दुसरे ख़त ने मुझे और भी गहरा सदमा दिया. मैं उस दिन पूरी तरह बिखर चुकी थी. मेरा रोम रोम पीड़ा कि आग में जल रहा था.मेरे चेहरे पर आई अचानक पसीने कि बुँदे बहुत कुछ बयान कर रही थी. फिर बार बार के तुम्हारे तर्क वितर्क से मैं हार चुकी थी. मैंने मान लिया था कि वो तुम्हारा एक मज़ाक ही था और अब वो ख़तम हो चूका है. मैं अपने अर्मानो  का गला घोंट चुकी थी. बार बार खुद को कोस रही थी कि पांच लम्हों पहले अगर तुम्हे जवाब दे देती तो शायद इस तरह बिखरने से बच जाती. तुम्हारे उस ख़त को मैं मीठा ज़हर समझकर पी गई थी. और उसके बाद आज जब डेढ़ साल गुज़र चूका है तुम्हे भुलाने में काफी हद तक सफल रही हूं.

आज फिर तुम्हारा ईमेल मिला. तुमने लिखा है:-"मैंने कब कहा कि तू मिल ही जा मुझे पर गैर ना हो मुझसे तू बस इतनी हसरत है तो है". और कि तुम्हारा वो ख़त मज़ाक नहीं प्यार का इजहार ही था. आज फिर मुझे सोचने पर मजबूर किया. लेकिन इसने मुझे उतना गहरा सदमा नहीं दिया. तुम्हारे जख्म खा खाकर मैं अब कठोर हो चुकी थी. आज के तुम्हारे ख़त का मेरे पास सपष्ट जवाब था. अब तुम मेरे लिए एक अबूझ पहेली बन चुके हो. मैंने तुम्हारा डेढ़ साल तक इंतज़ार किया. परन्तु तुमने वफ़ा नहीं कि और मैं बावफा होकर भी बेवफा बन गई. अब तुम मेरे लिए एक गैर हो, मैं किसी और कि होने वाली हूं. मेरी अब से तीन दिन बाद अपने ही पुराने किसी क्लास मेट से शादी होने वाली है. शायद तुमने वो मज़ाक नहीं बनाया होता तो आज भी मुझ पर सिर्फ तुम्हारा हक़ था. मगर अब बहुत देर हो चुकी है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना".

अब उसका ख़त ख़त्म हो चूका था और मुझे भी अपना जवाब मिल गया था. मेरी अपनी खाई हुई चोटें गहरी होती जा रही थीं. मेरी भावनाएं ताश के पत्तों कि तरह बिखर चुकी थीं. मैं ऑफिस से बाहर निकलकर आसमान में झाँकने लगा था. लग रहा था मानो पक्षी उड़ना भूल चुके हैं. हवा थम सी गई है. आसमान सिकुड़ चूका है. पेढ़ रूखे हो चुके हैं. चारो तरफ शान्ति छाई हुई है और एक वीरान दुनियां में मैं सिर्फ अकेला खड़ा हूं. लग रहा है जैसे सूरज हमेशा के लिए डूब चूका है. मेरा साया ही मुझसे कह रहा था.."अब कुछ नहीं साथ मेरे बस हैं खताएं मेरी". और मुंह से सिसकियों के साथ महज़ कुछ लफ्ज़ निकले जा रहे थे.."क्या तुम इतनी भी नादाँ थी कि न समझ सकीं ऐसा मज़ाक भी कोई करता है भला???

Thursday, March 4, 2010

सच्चाई

सच्चाई

मेरा अपना आइना
जो है आयताकार
रहता है
शांत
धर्मराज की तरह

मैं इस उम्मीद से कि
दिखायेगा मुझे अपना
असली प्रतिबिम्ब
जाता हूं उसके पास

परन्तु
वह दिखाता है
हर बार अलग तस्वीर
उत्तर से देखने पर अलग
दक्षिण से देखने पर अलग
पूरब से अलग पश्चिम से भी अलग

बदल जाता है वह भी
कोण के बदलने के साथ ही
और मैं
अर्थ निकाल लेता हूं
कि नहीं दिखाता आइना
एक असली तस्वीर

तो क्या यही है?
जीवन कि भी सच्चाई!