Sunday, August 29, 2010

कोई था वहाँ

कहते हैं जन्माष्टमी कि रात बहुत अंधेरी रात होती है. ऐसे ही रात के १२-१ बज गए थे, भजन पूजा में. मैं थोडा भूखा किस्म का आदमी हूं. बस इंतज़ार कर रहा था, कब १२ बजे और खा लूँ. पेट में दौड़ते चूहों कि वजह से मेरा ध्यान भगवान् में कम खाने में ज्यादा लग रहा था. झट १२ बजे, फट खा लिया. करीब एक बजे घर में सब सो गए थे. मैं भी अपने कमरे में जाकर निश्चिन्त होकर सो गया.

रात को किसी समय मुझे घर में किसी के चलने कि आहट सुनाई दी. ये पाजेब जैसी आवाज़ कैसी? आवाज़ से तो लग रहा है कोई लड़की है. पैर रखने कि आवाज़...बहुत ही आहिस्ता आहिस्ता.....छन्नंनन्न.....छनननन..... मैं थोडा डरा डरा सा महसूस करने लगा. घर में तो सब सो गए फिर ये आवाज़ अभी और इस वक्त? फिर धीरे से रसोई का दरवाज़ा खुलने कि आहट. पहले तो मैं सोचता रहा घर में से ही कोई होगा. फिर काफी देर तक खट खट सामान उठाने पटकने कि आवाजें आती रहीं.

मुझसे रहा नहीं गया. मैं धीरे से हिम्मत करके उठा. धीरे से बत्ती जलाई कि कहीं स्विच कि आवाज़ कमरे से बाहर नहीं चली जाए. राम राम जपते जपते मैं आहिस्ता आहिस्ता दबे कदमो से हाला. पहले सर बाहर निकालकर चारों तरफ देखा. फिर बायाँ पैर आगे लाया, फिर दायाँ. कोई नही दिखा. थोड़ी राहत कि सांस ली. अचानक मेरी नज़र रसोई घर की और गई. दरवाज़ा खुला था वो भी पूरा. अन्दर रौशनी भी हो रही थी. लेकिन ये रौशनी कुछ अजीब सी क्यूँ हैं? त्युब्लाईट या बल्ब में तो ऐसी रौशनी नहीं होती. लेकिन ये रौशनी होने के बावजूद लाइट क्यूँ जली हुई है? मुझे कुछ समझ में क्यूँ नहीं आ रहा है? ये चक्कर क्या है? मैं थोडा और आगे बढ़ा राम राम रटते हुए. मैंने देखा करीब साढ़े पांच फीट कि आकृति खड़ी है. गुलाबी रंग का सूट पहना है. घने लम्बे खुले बाल पीछे की और लटके हुए हैं. उसका मुंह दूसरी तरफ है. मैं उससे सिर्फ ५-६ फीट कि दूरी पर खड़ा था फिर भी मुझे उसकी आकृति धुंधली सी दिखाई दे रही थी. लेकिन उसकी चहल कदमी से लग रहा था कि वो रोटियां बेल रही थी.मेरा दिमाग फिर चकित..इसके जैसा घर में तो कोई नहीं है फिर ये लड़की कौन है और इस वक्त रोटियां क्यों बना रही है? और वो भी इतनी तल्लीनता के साथ. उसे पता ही नहीं चल रहा था कि उसके थोड़ी सी दूरी पर ही कोई खड़ा है. मैं खुद से सवाल जवाब में उलझता रहा.पहले तो सोचा किसी को जगाओं. फिर सोचा, नहीं वो ठीक नहीं रहेगा, खुद ही देखता हूं.

मैं फिर मन ही मन रामराम जपते जपते धीरे से उसके पास पहुंचा.  उसका ध्यान अभी भी रोटियां बेलने में लगा हुआ है. मैंने हिम्मत करके धीरे से उसके दायें कंधे पर हाथ रखा. वो हलके से चौंकी और पीछे मुड़ी. उसे देखकर मै अचंभित रह गया.

तुम?????(मैंने आश्चर्य से पूछा)

हाँ, मैं.....(उसने दृढ़ता से जवाब दिया).

अचानक उसे देख मेरा तो डर ही ख़त्म हो गया. सारा डर आश्चर्य मै बदल गया. बल्कि मुझे डर के बजाय सुकून व सुखद महसूस होने लगा था. हालांकि उसका चेहरा तो अभी भी स्पष्ट नहीं था. लेकिन मैंने उसे पहचान लिया था. ये तो वही लड़की है जिसके लिए मैं मन्नतें किया करता था. उसको इसी रूप मै देखना चाहता था. वो भी ऐसा ही चाहती थी. लेकिन कुछ परिस्थितियाँ शायद ज्यादा इज़ाज़त नहीं दे रही थी.फिर भी उसे देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा था कि ये इतने अधिकृत भाव से यहाँ कैसे कड़ी है? और इतने सरल भाव से मेरी तरफ मुस्करा क्यूँ रही है? मैं भी अपने गाल खेंचकर मुस्कुराने लगा. मैंने दूसरा हाथ भी उसके कंधे पर रख दिया. अब उसके dono कन्धों को पकडे हुए मुस्कुराते मुस्कुराते उसके करीब जाने की कौशिश करने लगा. अचानक किसी ने मेरे गाल पर जोरदार थप्पड़ मारा. मेरे तो होश उड़ गए. देखा बगल मै छोटा भाई सोया हुआ है और ठहाके मारकर मेरी दशा पे हंस रहा है. दादी चाय का कप लिए सामने कड़ी है. चिड़ियाएँ भी जैसे मेरी हालत पर चह चहाकर अपनी हंसी जाता रही थीं  और मैं अपने दांतों के बीच ऊँगली दबाये शर्मा रहा था. थोड़ी हंसी भी आ रही थी और थोडा गुस्सा भी....'अच्छा ख़ासा सपना चल रहा था यार'.....!!!

Sunday, August 22, 2010

डर, बंधन, झूंठ

(first attempt to say in few words...all the three are independent to each other.)

       (१) डर
यूँ तो नहीं डरता मैं
कभी
हालों से या हालातों से
पर
बहुत सहम सा
जाता हूं जब
ख़त्म होने लगती है
श्याही
कविता
लिखते लिखते...!!!



(२) बंधन


कहते हैं
प्यार होता है
स्वच्छंद 
नहीं बंधता कभी
किसी पाश या सीमा में,
फिर क्या यह 
सच नहीं है कि
कभी कभी
बाँध देती है
दो गलबहियां भी
प्यार को बन्धनों में ..!!!



 (3) झूंठ

वैसे तो नहीं
अच्छा लगता
सुनना कहना
कोई भी झूंठ,
पर कितना सुखद 
होता है जब
तेरे लब झूंठ बोलें
और
सच बयां कर दे
आँखे...!!!

Tuesday, August 17, 2010

तेरे शहर में

हर कली महकती है हर फूल खिलता है
तकदीर पर नाज़ करती हर फिजा....
तेरे शहर में.....!!!

तेरे घर जाती है जो गली, बड़ी अजीब है
ढूँढता हूं तुझे, पर खुद खो जाता हूं.....
तेरे शहर में.......!!!

तेरी छत का दिया, दूर से बुझा बुझा सा दिखता है
उसे जलाने की कोशिश में, हाथ जला लेता हूं....
तेरे शहर में........!!!

तेरी शौख अदाएं, अल्हड़पन, हैं सुर्ख़ियों में है हर तरफ
अखबार की खबर मुझसे कोई चुरा लेता है.....
तेरे शहर में..........!!!

कोई वादा करता है, ये निभाता है वो भुलाता है
वादों के सौदागर हैं बहुत......
तेरे शहर में........!!!

कभी सताते हैं कभी बुलाते हैं तेरे चाहने वाले
मैं तेरे पहलू में आके रो देना चाहता हूं......
तेरे शहर में........!!!

तेरा तो मुझे नहीं पता मगर इतना जानता हूं
बेवफाओं की कमी नहीं है.........
तेरे शहर में..........!!!

Saturday, August 14, 2010

स्वाधीनता दिवस

बीत चुका
एक ज़माना
जब मिली थी
हमें
उपहार में नहीं
बल्कि
बड़े संघर्ष के बाद
स्वाधीनता.

उस पावन दिन को
याद करते रहने के लिए
किया हमने आरक्षित
एक दिन
वर्ष में एक बार.

बस उस दिन हमें
याद रहता है
कि हम आज
आज़ाद हुए थे,
आज़ाद हैं नहीं.

कभी नहीं करते मूल्यांकन
कि आखिर
कितना खोया क्या पाया
पिछले ६० सालों में.

कभी नहीं देखते हम
कि आज भी अधीन है
हमारी भाषा
हमारी संस्कृति
हमारी सोच
दूसरों की.

बस एक झंडा फहराया
राष्ट्रगान गाया
दो नारे लगाए
एक भाषण दिया
और मान लिया कि
मनाली वर्षगाँठ   
स्वाधीनता की.

आओं इस बार कुछ अलग करें
समझें असली मायने इस दिवस के
प्रण लें कि
मिटाएंगे अशिक्षा, आतंकवाद
अशांति, प्रदूषण
और भी कई समस्याएं
भारतवर्ष की.

आओ हम अपनी संस्कृति अक्षुन्न रखें
अनेकता में एकता
अपनी भाषा मन की भाषा
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
सिद्धांतो को अपनाएं
पराधीन सोच और विचारों कि बेड़ियाँ हटायें.

रखें सकारात्मक सोच
सादा जीवन उच्च विचार
शांति , प्यार, भाईचारा
बढाएं
और मनाएं
सही अर्थों में,
स्वाधीनता दिवस.....!!!!

Monday, August 9, 2010

पेड़

मैं पेड़
धरती का श्रृंगार
मानो तो
सबसे बड़ा दातार.

सदा ही देता आया
तुम इंसानों को
पानी, हवा
फल, छाँव
आदि आदि.

बदले में क्या चाहा था?
बस इतना कि
लिपट सकें
तुम्हारे बच्चे
मेरे सीने से.

कुछ ज्यादा तो
सावन के झूले
झूमे
मेरी बाहों में.

और भी कुछ तो
बैठें पांच लोग
रूबरू हों राधा कृष्ण
थोड़ा सो ले कोई
भूला भटका राही
मेरे आँचल की छाँव में.

पर तुम इंसानों की
ऐसी भी क्या कृतज्ञता?
कि कर दिए
टुकड़े टुकड़े
मेरे धड़ के ही
छीनकर
पहले पत्तियां
फिर डालियाँ
और फिर तना भी.

फेंक दिया
उखाड़कर
जड़ से ही
जब गुजरा तुम्हारा
स्वर्णिम चतुर्भुज.

इंसान!
वाह रे,
तेरा इन्साफ!
तेरी वफ़ा!
तेरी फितरत...!!

Monday, August 2, 2010

पहिया

एक पहिया
शुरू हो जाता है लुढ़कना
हमारे आने के साथ ही
इस दुनिया में.

वो लुढ़कता रहता है लगातार
बिना रुके बिना मुड़े
उसके साथ लुढ़कते रहते हैं हम भी
पहले कोई हमें  लुढ़काता है
फिर हम किसी को.

फिर एक दिन पहुँच जाते हैं
कोसों दूर
भूल जाते हैं अपना उद्गम
रास्ते के उतार चढ़ाव
राही, हमसफ़र और सफ़र तक को भी.

ये भी भूल जाते हैं कि
लुढ़कना किधर था
लुढ़क किधर गए
और लुढ़कते लुढ़कते एक दिन
रुक जाता है पहिया
खुद ही.

ये लुढ़कना ही ज़िन्दगी का
नाम है शायद..!!!