Friday, April 29, 2011

सुख की तलाश में

(अगर नजरिया नकारात्मक हो जाये, तो ज़िन्दगी कुछ यूँ दिखाई देती है....)

सुख की तलाश में


काटते गुजारते दिन
बरस छब्बीस गुजर गए
धीरे धीरे रिटायर हो जायेंगे
पहले नौकरी से
फिर ज़िन्दगी से.

बचपन में पढने का दुःख था
अब नौकरी का दुःख है
दफ्तर में बॉस का दुःख है
घर में बीवी का दुःख है
दोस्तों में बीमा करने वालो का दुःख है
बाहर निकलो तो दुकानदारों का दुःख है.

सोता हूँ तो नींद नहीं आती
चादर हटाता हूँ तो मछर काटते हैं
ओढ़ता हूँ तो गर्मी लगती है
स्विच दबाता हूँ, बिजली चली जाती है.

भूख लगती है तो मेस बंद मिलती है
खाना अच्छा बना हो तो भूख नहीं लती
जो मुझे पसंद करे उससे मुझे प्यार नहीं
जिससे मुझे प्यार है मुझे नहीं करती.

अपने दुखों का राग अलापता हूँ
सब कान बंद कर लेते हैं
इन्तहां तो अब हो गई है पागलपन की
कि सुख को गूगल में सर्च करता हूँ.

लिंक तो कई मिल जाते हैं सुख के
पर खुलता कोई नहीं है
किसी ने सही कहा था,
ज़िन्दगी गुलाबों की शैया नहीं
दुनिया दुखों का सागर है...!!!

Wednesday, April 20, 2011

हाय रे भ्रष्टाचार! हाय रे हाय! (गुस्ताखी माफ़)

हाय! हाय! ये कोई ताली बजाके बोलने वालो का हाय हाय नहीं है. ये हाय, हाय उस अचम्भे पर है जिसके चलते एक साथ लाखों लोग एक ही दिन में ईमानदार हो गए. ईमानदार हो गए या इमानदारी का दौरा पड़ा, ये बात तो वो ही जानते हैं, हम किस खेत की गाजर मूली हैं  की  ये बताएं. किसी ने कसर नहीं छोड़ी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने में, चाहे साधू सन्यासी हो या नेता या परनेता या फिर कोई आम और इमली आदमी. हालांकि इस मुहिम में प्रदर्शन करने वालो में कुछ तो ऐसे आम भी थे जो बस कंडक्टर को दो रुपये कम देकर आये थे या रेलवे की जनरल बोगी का टिकट लेकर स्लीपर में यात्रा कर लौटे थे. कुछ बिजली चोरी करने वाले थे तो कुछ बिजली का बिल न चुकाने वाले. कुछ ऐसे भी जिन्होंने बिल तो छ महीनो से नहीं भरा, कनेक्शन कटा तो पैत्रक सड़क में पानी चोरी के लिए गड्ढा कर दिया. चंद मुखड़े ऐसे भी जो वापस न देने की नीयत से आपका या मेरा पेन उधार मांग लेते हैं. भाव पूछने के बहाने टमाटर जेब में डाल लाने वालो की भी कमी न थी. कहने का अभिप्राय है की सभी प्रकार के आम और इमली आदमियों ने भ्रष्टाचार पर कौड़े बरसाए पर उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया की वे किसके भ्रष्टाचार के विरूद्ध बोल रहे हैं-अपने या किसी और के? या फिर सिर्फ नेताओं के पीछे पड़ गए. वैसे जहां तक सामान्य ज्ञान का विषय है जिसको जितना मौका मिलता है, उतनी ही भ्रष्ट होने की 'स्थापित क्षमता' उसमे है, निर्भर करता है उस पर की कितना दोहन कर पाता है. शायद इसीलिए दोष झट से नेताओं पर मढ़ दिया जाता है या फिर कुछेक सरकारी महकमो पर.

प्रश्न यह है की क्या आम आदमी भ्रष्ट नहीं है??? क्या वह संविधान के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों को निभा रहा है??? क्या कभी अपना भोजन छोड़कर भूखे को खिलाया है? क्या हर स्त्री को माता या बहन की दृष्टि से देखता है? क्या कभी किराने की दूकान से गलती से ज्यादा मिला सामान वापस लौटाया है? क्या ऑटो या रिक्शे वाले को बिना लड़े-झगड़े पूरे पैसे दिए हैं? क्या अपने घरेलू सेवक को कभी पूरी पगार खुश होकर दी है???

अगर इनमे से किसी भी प्रश्न का जवाब 'ना' में है तो प्रथम-दृष्टया आम आदमी अपने खुद के प्रति भी ईमानदार नहीं है. तो फिर सिर्फ नेताओं या अफसरों को ही दोष क्यूँ?? यद्यपि उनमे से कोई भ्रष्ट गतिविधयों में लिप्त पाया जाता है तो उसके लिए तो सीबीआई, सी वी सी, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी बड़ी व्यवस्थाएं है ही भारत में. भारतीय संविधान द्वारा तंत्र को विकसित करने के लिए व्यापक इंतज़ाम किये गए हैं ताकि एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके. आवश्यकता है तो बस इन्हें समझने की, अपने कर्तव्यों को मानने और निभाने की.

कहने के पीछे मूल भावना सिर्फ इतनी सी है की भ्रष्टाचार नामक व्याधि आज हमारे देश में काफी हद तक अपनी जड़ें पसार चुकी हैं. समय की मांग इस बात की है की भारत का हर नागरिक अपना उत्तर दायित्व समझे. दूसरों को ईमानदार बनाकर खुद बेईमान रहने की अभिलाषा के बजाये वह खुद को ईमानदार बनाये. सच्चा सोचे, अच्छा सोचे, सकारात्मक विचार अपनाएं. राष्ट्र के लिए रचनात्मक कार्य करे. दूसरों की निंदा करने के स्थान पर खुद निष्ठापूर्वक ईमानदारी से कार्य कर उदाहरण पेश करें. आप, हम, इस देश की आम जनता, राष्ट्र का मेरुदंड हैं. अगर आप और हम सुधर गए तो पूरा राष्ट्र सुधर जाएगा, तभी होगा एक नए भारत का निर्माण. तभी बनेगा, एक नया भारत, इक्कीसवीं सदी का ईमानदार और विकसित भारत. अन्यथा हाथ पर हाथ धरे घर बैठिए और गुनगुनाते रहिए, अमिया से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए.............

Saturday, April 16, 2011

शर्तिया प्रेम

प्रेमिका कहती है
मेरे लिए आसमान के तारे तोड़ ला सकते हो?
मुझे चाँद की सैर करा सकते हो?
अगर नहीं तो,
तुम मेरे लायक नहीं हो.

जब हो जाओ तब आना
चाहे तुम्हे पुनर्जन्म ही क्यों न लेना पड़े

प्रेमी बेचारा सदा की तरह
प्रेमिका के कठोर मापदंडों की
पूर्ति के लिए
मृत्यु का इंतज़ार करता है.

वह पुनः जन्म लेता है
चाँद तारे लाकर 
प्रेमिका की झोली में डाल देता है
घुटना टेके प्रीत का प्रस्ताव करता है
प्रत्युत्तर में प्रेमिका तैयार रहती है
पुनः नयी शर्तों के साथ.....!!!      

Wednesday, April 6, 2011

ऐ अजनबी!

ऐ अजनबी!
एक दिन तू अजनबी थी
कल न रही
आज फिर है.

अभी-अभी
तेरी झलक देखी थी
पल भर के लिए
छलक आई थीं, 
मेरी आँखे
कि आखिर तूने
याद तो रखा.

कुछ लफ्ज़
तेरे लबों से बिखरे 
मैंने उन्हें सहेजा,
अपनी रगों में
बदले में लुटा दी तुझे
दिल की धड़कने.

पर, इससे पहले कि
मैं तुझे 
जी भर के देख पाता
हो गई तू फिर ओझल
मजबूरियों का नाम देकर.

अब बस सूना आसमान है
हवाओं में खुशबू  वीरान है
मेरे शहर की गलियां सुनसान है
आखिर किन मजबूरियों ने तुझे बाँधा है
कि मेरा साया होकर भी तू अनजान है.

आओ!
आज अमावास क़ी रात है
तुम चाहो तो 
सारी मजबूरियां मिट सकती हैं
हर बंधन टूट सकते हैं
बस, 
इतने करीब आ जाओ कि
कल सूरज उगे तो
आज की रात के बाद हम 
अजनबी न रहें...!!!