Saturday, June 11, 2011

प्रकृति से एक प्रश्न...

हे प्रकृति!
कौन हो तुम?
क्या कभी दिया किसी को
अपना परिचय?

क्या तुम्हारा कोई भौतिक अस्तित्व है,   
चाँद, तारों, वनस्पति, आकाश में कहीं?
या मात्र एक कल्पना हो?
या हो महज़, बिग बेंग थ्योरी का एक विस्फोट?

क्या तुम्हारा प्रारब्ध उससे पहले भी था?
यदि था, तो किस प्रारूप में?
अगर नहीं, तो तुम जनित हो
जनित हो तो अमर नहीं हो सकती.

किसने किया था तुम्हारा सृजन?
ब्रह्मा, विष्णु या महेश?
या तुमने ही रचा था उन्हें?
यह भी अनुत्तरित है.

तुम ही निर्माण करती हो निर्वाण  भी  
अगर निर्माण तुम्हारा है 
तो फिर  निर्वाण की आवश्यकता क्यूँ ?
तुम तो अपना आकार बढ़ा सकती हो न!

बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी, ग्रहण 
यह सब तो तुम्हारे लिय खेल होंगे
अगर नहीं तो फिर
ये विनाश लीला क्यूँ?

या अमूर्त में जानू तो
क्या तुम ह्रदय में बसने वाली प्रीत हो?
या हो आत्मा का परमात्मा से मिलन?
यदि हाँ, तो जन्म मृत्यु क्यूँ?

हे प्रकृति!
मैं बहुत ही सूक्ष्म और क्षण भंगुर जीव हूँ
तुम्हारे बारे में नहीं लगा सकता
कोई भी अनुमान
प्रयास भी करूँगा तो रहूँगा नाकाम.

तेरी ही रचना होकर
तुझ ही से प्रश्न करता हूँ  
कृपा करके  दे दो मुझे
अपना परिचय
और निश्चय ही
मेरा भी!!!

17 comments:

  1. यथार्थ क्या इतना कठोर है

    ReplyDelete
  2. वाह.....आपकी इस खूबी को सलाम है जो इतने शब्दों में इतनी गहराई उंडेल देती है .....बहुत खूब

    ReplyDelete
  3. ईश्वर का क्या परिचय ... वो तो तेरे अंदर ही है ... अपने से अपना क्या परिचय ...

    ReplyDelete
  4. बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी, ग्रहण
    यह सब तो तुम्हारे लिय खेल होंगे
    अगर नहीं तो फिर
    ये विनाश लीला क्यूँ?.............ऐसा लिखना आपकी गहरी सोच का सूचक है ...प्रकति को लेकर ऐसी सोच
    बहुत खूब ....

    ReplyDelete
  5. प्रकृति को लेकर सुन्दर कविता... नए चिंतन को जन्म देती... बहुत बढ़िया...

    ReplyDelete
  6. कुछ चीज़ें महसूस करने की होती हैं.लोग भगवान के बारे में भी ऐसा ही सवाल अक्सर करते हैं.मुझे किसी का एक बढ़ा प्यारा शेर याद आ गया. आप भी देखिये :-
    बेहिजाबी ये कि हर ज़र्रे में आता है नज़र,
    पर्दादारी ये कि उसको आज तक देखा नहीं.

    ReplyDelete
  7. तुम ही निर्माण करती हो निर्वाण भी
    अगर निर्माण तुम्हारा है
    तो फिर निर्वाण की आवश्यकता क्यूँ ?

    Bahut sunder chaintan liye panktiyan....

    ReplyDelete
  8. तुम ही निर्माण करती हो निर्वाण भी
    अगर निर्माण तुम्हारा है
    तो फिर निर्वाण की आवश्यकता क्यूँ
    तुम तो अपना आकार बढ़ा सकती हो न

    प्रकृति की इस 'हाँ' और 'ना' को
    मनुष्य कब सुन पाया है भला ...?
    कुछ प्रश्न
    अनुत्तरित ही रहें
    तो
    ज़िन्दगी के सच होने का भ्रम
    बना रहता है .

    बहुत सुन्दर रचना,,,
    प्रभावशाली अभिव्यक्ति ... !!

    ReplyDelete
  9. Nature is the biggest mystery to mankind.
    Everything is well balanced
    Seasons
    Day-Night
    weeks
    days u name it.

    But a slight imbalance even 4 a split second can be catastrophic.

    well written and awesome expressions !!!!

    ReplyDelete
  10. बहुत सुंदर प्रस्तुति |बधाई |
    मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार |
    आशा

    ReplyDelete
  11. तेरी ही रचना होकर
    तुझ ही से प्रश्न करता हूँ ?
    प्रश्न न पूछे जायें तो सच का पता कैसे चले चिन्तन ही राह दिखाता है और फिर प्रकृ्ति इशारों से सब बताती है मगर आदमी सीखना कब चाहता है। बहुत उत्कृष्त रचना। शुभकामनायें।

    ReplyDelete
  12. बहुत बढ़िया!
    यदि इस रचना को आज दिनभर में पढ़ी गई श्रेष्ठ पोस्ट कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति न होगी!

    ReplyDelete
  13. आपके ब्लाग के नाम ने आकर्षित होकर रचनाएं देखी । सुख की तलाश में गूगल पर सुख ढूँढने वाली बात बेहद मार्मिक लगी । इसी तरह उसका दोष ,...और यह प्रकृति से प्रश्न, कुल मिला कर आपकी रचनाओं में नवीनता है ।

    ReplyDelete
  14. शाश्वत प्रश्न -क्या कभी इनका उत्तर मिल भी सकेगा !

    ReplyDelete
  15. चिरंतन काल से अनुत्तरित प्रश्न . बहुत ही गहन चिंतन से उपजे नैसर्गिक विचार.सुंदर लेखन हेतु बधाई.

    ReplyDelete
  16. Devebdra Kumar herein after refer as DK

    BOSS DK good one

    ReplyDelete
  17. kabiley tareef likha hai,dev ji aapne.100 out of 100.
    -garima

    ReplyDelete