Wednesday, December 5, 2012

शब्द-दर-शब्द (काव्य संग्रह)

लम्हा लम्हा वक्त गुज़रता है. जज़्बात बनते हैं बिगड़ते हैं आपमें मुझमे. कुछ स्पंदन के साथ जुड़ जाते हैं कुछ बयान होकर भी रह जाते हैं कहीं न कहीं अमर. फिर वही बेतरतीब बिखरे कागज़ के टुकड़े और किसी कोने में पड़ी कलम उसे सहारा देती है. जज़्बात उतरने लगते हैं कागज़ पर शब्द-दर-शब्द. कविताओं की यात्रा करते करते, गुज़रते गुज़रते नदियों और धाराओं से पहला संगम (यह पुस्तक) लेकर उबर आते हैं. अभिव्यक्ति उबरती जाती
...
ै, गहराई में डूबने लगते हैं आप और मैं शब्द-दर-शब्द...............यह युवा कवि देवेन्द्र शर्मा का पहला काव्य संग्रह है जिसे मेरठ के उत्कर्ष प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है. इस संग्रह में गंभीरता के अलावा श्रृंगार, हास्य, दर्द और विरह के अलावा जीवन के प्रति दर्शन का भी बेहतरीन समावेश किया गया है...कवि, कविताओं और साहित्य को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से प्रकाशक द्वारा इसकी कीमत मात्र रस Rs. 90/- रखी गई है....पुस्तक प्राप्ति के लिए कवि देवेन्द्र शर्मा से (deven238cs@gmail.com, ph-09451983612) या प्रकाशक उत्कर्ष प्रकाशन (uttkarshprakashan@gmail.com, ph-09897713037) से संपर्क किया जा सकता है........निशुक्ल प्राप्ति के लिए कवि से संपर्क करें....

Sunday, August 26, 2012

मूल जड़ (गुस्ताखी माफ़) :)...

हद हो गई यार
रोज करते हो
भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार।

 क्या उखाड़ लिया?
भूखा प्यासा रह के
जैलों को भर के।

हालात तो वैसे ही हैं
आप, मैं और वो
कल जैसे ही हैं।

अगर यह समस्या है
तो इसकी मूल जड़ को देखो
हवा में लट्ठ मत फेंको।

इतिहास गवाह है
आज तक जो बड़े काण्ड हुए
अफसर, नेता, अक्ल्वानों से हुए।

तीनों में एक समानता होती है
नाम अलग अलग किन्तु
बुद्धि होती मोटी है।

तो यही मूल जड़ है मित्रों
बुद्धिमान ही बुद्धि का प्रयोग करता है
दिल खोलकर भ्रष्टाचार-दुराचार करता है।

तो बुद्धि से ही
आविष्कार है
आविष्कार है तो प्रदूषण है
बेईमानी है, षड्यंत्र है
राजनीति है, कूटनीति है।

आज कुछ हटकर सोच लें
सम्पूर्ण व्यवस्था ही बदल लें
यह तथ्य आत्मसात कर लेते हैं
कि बुद्धि शिक्षा से आती है
जो कुमार्ग पर चलाती है।

न रहेगी शिक्षा, न बढेगा ज्ञान
न बढेगा ज्ञान, न होगा अभिमान
न अपना, न पराया
न अच्छा, न बुरा
न पहनावा, न दिखावा।

तो आओ, आज देश के तमाम
स्कूल, कॉलेज बंद करवा देते हैं
शिक्षा का नामों निशाँ मिटा देते हैं!!! :):):)
(Education has ruined the society :))
 

Monday, July 23, 2012

तेरे बारे में प्रेयसी...

  (बहुत दिनों तक दिमाग की बत्ती बंद रही....ब्लॉग से दूर हो गया....या यूँ  कहिये जब दिल की बत्ती जलती है तो दिमाग चलता है....और कलम लिखती है....लम्बे दिनों बाद लिखा, कुछ टूटा-फूटा आपकी सेवा में पेश है........:)

क्या तुम जानती हो?
मैं तुम्हारे बारे में कैसा सोचता हूँ
कितना सोचता हूँ, कब सोचता हूँ
क्या सोचता हूँ और क्यूँ सोचता हूँ!

दिन की शुरुआत से लेकर
आठवां प्रहार बीतने तक
तुम्हारी बातें तुम्हारी यादें
घूमती रहती है आँखों में
नज़र आती हो तुम ही तुम
कभी हवाओं के झोंको की तरह
कभी रात के सपनो की तरह।

आईने के  सम्मुख होता हूँ तो तुम देखाई देती हो
कलम हाथ में लेता हूँ तो तुम दिखाई देती हो
कभी दिल बहलाने के लिए बगीचे में डोलता हूँ
तो चिड़ियों की चहचहाहट में तुम सुनाई देती हो।

तुम्हारे चेहरे में चाँद सी शीतलता
केशों की घनघोर घटायें
अधरों में इन्द्रधनुष
आँखों में मोती सा आवरण
एक और ही कुदरत नज़र आती है
सम्भलने की लाख कोशिशें मेरी,
यूँ ही बहा ले जाती हैं।

और तुम जानती हो?
जब तुम्हारे दांतों की तरफ देखता हूँ
तो तुम्हारे अधरों से ईर्ष्या करता हूँ
कि वो कितने बड़े सिकंदर हैं,
जो हर घड़ी उस धवल पर स्पर्श रखते हैं।

और जो तुम्हारे अधरों से ध्वनि आती है
सातों सुर गुनगुनाती है
तुम्हारे नाक, दामन, उदर और कटि की सुन्दरता
देख देख मेरा मन नहीं भरता
उस पर भाषा, सुशीलता व सौम्यता
ह्रदय की काया सी कोमलता
भला,ऐसा सौदर्य किसका मन नहीं हरता!


आज मन के सारे उदगार तुम्हारे सम्मुख रखता हूँ
अपने चंद शब्दों में प्रीत का प्रस्ताव करता हूँ
मुझे तुझसे प्रीत है प्रेयसी....
तुझसे बस इक बात का इकरार चाहता हूँ
सुंदरी!मैं बस तुझ पर अधिकार चाहता हूँ!!!


Thursday, May 24, 2012

ऊंची उड़ान 


मेरे मित्रों 
शुभचिंतको 
मैं सदैव आभारी हूँ 
आपका।

कि देते रहे हो
सदा-सर्वदा 
प्रेरणा और साहस मुझे 
ऊपर उठने के लिए
ऊँची उड़ान भरने के लिए।

साथियों! जितना ऊँचा 
उठना चाहिए था उतना 
तो उठ लिया 
पर दे न पाया कुछ 
बहुत कुछ लेकर भी 
इस संसार को।

फिर और ऊपर उठने का 
क्या फायदा,
मेरे सिवा किसी को?

क्या रंग पोतकर मैं अगर 
अपनी चमड़ी गौरी कर लूं 
बाल मशीनों से घुमा लूं 
सूटेड बूटेड हो लूं 
चमचमाती गाडी में बैठ लूं 

तो क्या सिर्फ इसी को 
ऊपर उठना माना जायेगा?

चलो मान लेते हैं,
इससे भी ऊपर उठा और
मेरे ह्रदय का रंग काला ही रहा 
मेरे विचार दूषित ही रहे 
पैर धरातल पर न रहे 
किसी के लिए कुछ न कर पाया 
इस धरा को कुछ दे न पाया।

तो क्या महत्व है मेरा 
इस तरह ऊपर उठने का?

बजाय इसके,
मैं अगर दो पल हंस लूं 
तुम्हे हंसा लूं 
दो अजनबी गले लगा लूं 
आपको खुश कर लूं 
कुछ कविता सुना लूँ 
भूखे को भोजन करा लूं 
चंद शब्द किसी सुंदरी की 
तारीफ़ में कह लूं 

साथ बैठ थोड़ी गपशप 
थोड़ी शरारत कर लूं 
तो क्या यह,
ऊपर उठना नहीं है?

मेरे मित्रों!
कृपया मुझे विवेक दें,
मैं बुद्धिहीन हूँ! 
 
 

Monday, May 7, 2012

आज मैंने ठान ली है


आज मैंने ठान ली है
कि नहीं करूँगा
कोई काम
किसी की सुनूंगा नहीं
कविता नहीं लिखूंगा
अखबार भी नहीं पढूंगा
देखता हूँ कैसे चलती है,
दुनिया मेरे बिना.

अगले दिन प्रातः देखता हूँ
सूरज भी उग आया
पक्षी भी चह चहा रहे हैं
सड़कें भी दौड़ रही हैं
बाज़ार भी कल जैसे ही हैं.

यथार्थ यही है
कुछ नहीं फर्क पड़ता
मेरे रहने, न रहने से
दुनिया कल भी चल रही थी
कल भी चलेगी
वैसे ही अनवरत
मेरे बिना भी

Saturday, April 7, 2012

वो हसीन पल


बहुत याद आते हैं वो हसीन पल
तेरे साथ गुज़ारे हँसते खेलते रगीन पल.

तू हंसती थी मैं हंसाता था
तू रूठती थी मैं मनाता था.

तू खत लिखती थी मैं छुपा लेता था
तू शर्मा जाती थी मैं हाथ थाम लेता था.

बारिश की बूंदों में तुझे खींच के ले जाना मेरा
पैरों से पैरो की छुअन और सीने से लग जाना तेरा.

घंटों मुलाकातों के बाद बिछड़ जाना
दूरियाँ अधिक हों तो फिर हिचकियाँ लेना.

नज़र से नजर मिले तो तेरा अंगडाई लेना
जाने के नाम से फिर सिसकियाँ भरना.

आज भी सावन की फुआरें ले आती है दिल में हलचल
देखने को तरस जाती हैं आँखें मन जाता है मचल.

बहुत याद आते हैं वो हसीन पल
तेरे साथ गुजरे हँसते खेलते रंगीन पल.

Saturday, March 17, 2012

यथार्थ अमरत्व उपदेश


सर्व विदित है
इस मृत्यु लोक से
निश्चित है पलायन
सबका एक दिन.


भौतिक स्वरुप को
होना ही है ख़ाक
वही बनना और बिगड़ना
हो जाना फिर शून्य में विलीन.

यद्यपि शून्य जीवित रहेगा सर्वदा
और है भी
अनादि से अनंत तक.


इसी में गूंजती रहेगी
हमारी कर्म ध्वनियाँ
आचरण, सदोपदेश, विचार
अभिव्यक्तियाँ और सिद्धांत
शून्य के रहने तक.


स्पष्ट है ये आज भी अमूर्त है
और जो अमूर्त है अमृत्य भी.


इसीलिए, जगदगुरु श्री कृष्ण ने भी
यथार्थ सन्देश में कहा था
कर्म करो-फल की इच्छा नहीं.


कारण भी सुस्पष्ट है
फल या परिणाम नश्वर है
और कर्म, आत्मा की तरह ही 
मरता नहीं कभी.


अनंत कारण बनते रहते हैं
परिणाम मगर बनता और मरता रहता है
और युग युग में बदलता जाता है
विज्ञान भी.


कर्म ही कारण है
कारण ही अमरत्व है
और गीता का
यथार्थ उपदेश भी.....

Monday, February 27, 2012

घूस (गुस्ताखी माफ़)!

(सनद रहे कि घूस लेना और देना अनैतिक भी है और अपराध भी)....

घूस, तुम हो कण कण में व्याप्त
हर अच्छे भले इंसान के ह्रदय का भाग.

मैं तुम पर क्या कविता लिखूंगा
कोशिश करूंगा तो अपना ही उपहास करूँगा.

तुम्हारा स्तर मेरी कलम से कहीं उंचा है
तुम्हारी महिमा जो न जाने, उसको केमिकल लोचा है.

बंद फाइलें तुम खुलवाती
खुली फाइलें  तेज चलवाती
हर काम-धाम की गति बढ़ाती
फिर भी नादानों के मुख व्याधि कहलाती.

तुम मेरे लिए तो सबसे बढ़ी शक्ति हो
कोई ऐरी गैरी व्याधि नहीं, सर्वोत्तम औषधि हो.

जब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए
खुद को मैं असमर्थ सा पाने लगूं
तुम्हे याद करके मुस्कुरा देता हूँ
और लिफाफा टेबल के नीचे से सरका देता हूँ.

तुम्हारी विशेषता भी अपूर्व है
तुम्हे देने वाला भी और पाने वाला भी खुश है
ऐसी अद्भुत गुण की तुम स्वामिनी हो
सर्वशक्तिमान वज्रपथ गामिनी हो.

तुम्हारे आगे नित नित शीश झुकाता हूँ
निस्वार्थ भाव से एक विनती करता हूँ
तू अपना दाम, रुतबा बढ़ा, लगा होड़ पे होड़
कसम तुझे अपने वजूद की, बस मेरा पीछा छोड़...:)