Thursday, December 19, 2013

"आप' रहम करो रहम! (व्यंग्य)

माननीय आम  लाल! आपकी स्थिति ग्राम पंचायत के तुक्के से जीते अनपढ़ रामलाल सरपंच जैसी बनी हुई है। पूर्णतया किंकर्तव्य विमूढ़! दिल्ली और  भारत की समस्त भोली भाली जनता की तरफ से कसम है आप सब 'आप" वालों को  अपने अपने खुदा की ।  सरकार बनानी है बनाओ  नहीं बनानी है मत बनाओ। पर कम से  कम जनता को मत पकाओ।  जनता ने आपको सरकार बनाने का  अधिकार दिया है पकाने का नहीं। आपने तमाशा  खड़ा कर रखा है।  कभी इससे  पूछते  हो कभी  उससे पूछते  हो।  आपसे तो मौन मोहन जी अच्छे है जो  सिर्फ एक ही इंसान से पूछते हैं।   चिट्ठी पत्री का खेल नहीं खेलते। आपका  छुपम छुपाई और चिट्ठी-पत्री, एस एम एस -एस एम् एस का खेल झेलना अब जनता के बस कि बात नहीं रही।  कुछ तो रहम करो।  १० दिन हो गये  आपको।  इतने दिनों में तो टेस्ट मैच का परिणाम आ जाता है।  १८ दिनों में तो महाभारत जैसा महायुद्ध ख़तम हो गया था लेकिन आपकी आमलीला है कि ख़तम होने का नाम ही नहीं ले रही। खेल  नही रेलमपेल हो  रही है।  आप  इतना बोर करोगे तो दिल्ली की प्यारी प्यारी जनता दिल्ली छोड़कर भाग जायगी और उसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ आप होंगे।  अगर आपको  दुकान सेट करना  आता ही नहीं, तो तम्बू लेकर बीच  सड़क पर क्यूँ अड़के बैठ  गए? दूसरों को तो अपना काम करने देते। न खाते हो न खाने देते हो।  खाओ नहीं तो ढोलो ही सही,  यह कहाँ की राजनीती है ? कबाब में हड्डी बने बैठे हो ? आपके सभी लोगो ने जनता और आम ये दो शब्द रट लिए तोते की तरह,  कुछ भी पूछो इन दो शब्दों के अलावा और कुछ बोल पाते ही नही।  बेचारी भोली भाली जनता ने क्या बिगाड़ा था आपका? जो इतना बोर करे जा रहे हो? अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो ? जल्दी निकलो जहां जा रहे हो :) पतंग का मांझा आपके हाथ में देकर जनता पछता रही होगी :):):)     

Thursday, December 12, 2013

आम के पेड़ में अंगूर (व्यंग)

मेरे अड़ौस में एक साल पहले एक पड़ौसी आया  था, नाम है-आम लाल।  और मेरा-जनता मल।  वह जब से आया अपने घर के आँगन में आम के पेड़ लगा रहा है।  बीज डाले,  सिंचाई की सर्दी-गर्मी-बरसात तीनो मौसम। कुछ साथी भी बटौर लिए आम की खेती में।  मेरी मजबूरी है कि मुझे उसके घर के सामने से गुज़रना पड़ता है। और उसको मुझसे कुछ ज्यादा ही चिढ है।  जब भी मैं उसके घर के सामने से गुज़रता हूँ तो मुझे चिढ़ाने के लिए उसके मुख्य दरवाजे पर लटका हुआ प्लास्टिक का आम हाथ में पकड़ कर, बांहे चढ़ाकर, पैर फटकार कर कहता है- अरे जंनतामल! जाता कहाँ है? सुन ले! आम के पेड़ लगा रहा हूँ।  जब ये पाक जायेंगे तो खूब खाऊंगा।  तुझे तो चखाउंगा भी नहीं।  

मैं उसे छोटा मोटा माली समझकर भाव ही नहीं देता था।  बोलता था-तेरे जैसे माली ३६ हैं हिंदुस्तान में।  तो वो पलट के जवाब देता-"लेकिन मैं अलग किस्म का माली हूँ।  मेरे बाग़ में आम उगेंगे भी, खिलेंगे भी और फलेंगे भी। "

लेकिन मैं उसकी बात को बीड़ी के धुंए की तरह हवा में उडाता रहा। 

और ऊपर वाले कि कृपा देखिये उसके ऊपर, आम के पेड़ में अंगूर निकल आये।  आमलाल माली न रहकर-----हो गया, क्यूंकि अब उसके हाथ में अंगूर है। 

अब जब खूब सारे अंगूर फल आये तो वो मुझे कहता है कि अंगूर तू खा ले।  

पर मुझे समझ में यह नहीं आता कि वह अपने अंगूर मुझे क्यूँ खिलाना चाहता है? उसके खेत में उगे हैं,  वह खाये। जश्न मनाये।  

मुझे मेरे अगल वाले अड़ौसी से पता चला है कि उसको उसके बगल वाले पड़ौसी ने आठ अंगूर बिना किसी शर्त ऑफर किये हैं फिर भी आमलाल है कि  टस  से मस नहीं हो रहा। कहता है पूरे छत्तीस मेरे खेत में  ही उगाऊंगा फिर ही खाऊंगा। जनतामल के पास ३२ हैं, पहले वह खाये।   

मैं पूछता हूँ- प्यारे आमलाल! पहले तो तू सिर्फ आम उगाने की बात करता था।  ३६ की तो कभी बात की ही नहीं।  अब आम की जगह २८ अंगूर तेरे आम के खेत में निकल आये, तो आम के बाग़ में अंगूरी लताएँ फैलाना चाहता है।  कल इसे अमरूदों का बाग़ बना देगा।  

या प्यारे आमलाल, मैं यह समझ लूं कि तुझे अंगूर खाना ही नहीं आता? कहीं यह तो नहीं सोच रहा है कि कैसे खाऊँ?  पीसकर, बांटकर या उबालकर? या जनतामल को चखाकर खाना चाहता है कि कहीं खट्टे तो नहीं? या मुझे खाते देखकर खाना सीखना चाहता है?? बबुआ ! अंगूर खाना भी कला है। ---- के हाथ में अंगूर टिकता नहीं बहुत दिन। मैं तो कहता हूँ  मौका मिला है, पड़ौसी के आठ ले ले और खा ले! ज्यादा ऊँची नाक रखने में कोई फायदे नहीं है।  आम के पेड़ में अंगूर एक ही बार निकलते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती :):):)      
  

Tuesday, December 3, 2013

जुगाड़ एव प्रबन्ध: (व्यंग)

 सूर्य भगवान् के अलार्म के साथ ही मैं बाहर बैठकर राष्ट्रीय पेय पदार्थ चाय की चुस्कियाँ  ले रहा था।  विज्ञापनो के बीच बिखरी पड़ी ख़बरें  इधर उधर  से ढूंढ ढांढकर पढ़ने की कोशिश कर रहा था।  इसी बीच  मुझसे डबल उम्र के सहकर्मी मित्र आ पहुंचे। मैंने  नमस्कार द्वारा उनका अभिनन्दन  किया और रेडीमेड चाय  का प्याला हाथ में  थमा दिया। कहा गया  है - "कुछ पीओ"!  "मगर, साथ बैठ कर पीने का मज़ा ही कुछ और है"…. कुछ देर बाद अखबार के रंग बिरंगे  कोचिंग संस्थाओ के विज्ञापन देखकर बोले- सर!  किसी अच्छे  MBA Entrance की पढ़ाई  कराने वाले संस्थान का  नाम बताएं।  मैंने पूछा- क्यूँ जनाब?  इस उम्र में MBA Entrance देकर क्यूँ भेड़ बकरियों की जमात में शामिल होना चाहते हैं? अपने वर्त्तमान से खुश नहीं हैं क्या? वो बोले- जनाब! बेटा MBA करना चाहता है।  विदेश जाकर पढ़ना चाहता है।  मैंने पूछा विदेश जाकर क्या पढ़ेगा? वो बोले-प्रबंधन की शिक्षा लेगा।  मैंने कहा- तो उसके लिए विदेश जाने की क्या जरुरत? और बल्कि देश में भी किसी प्रबंधन पाठशाला (Management "School") की भी क्या??? वो तो हमारे  देश के कण कण में व्याप्त है.

वो चौंके -क्या!

मैंने कहा-इम्तिहान में सोचिये जब आप कोई काम नहीं कर पा रहे होते हैं, तो  ले देकर या येन केन प्रकारेण किसी युक्ति से काम चलाते  हैं कि नहीं? और उस युक्ति को क्या कहते हैं?

'जुगाड़'-उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। मैंने तपाक से कहा-यही तो प्रबंधन है।  प्रबंधन  की परिभाषा भी तो यही है कि " किसी तरह से काम निकालना या काम चलाना"…. तो काम तो जुगाड़ से ही निकाला जाता है।  हम रोज़ जुगाड़ करते हैं, रोज़ प्रबंधन करते हैं।  आम आदमी से लेकर सरकारें तक जुगाड़ से चल रही हैं, पुरे पांच साल गुज़ार रही हैं।  एक ही सरकार में २०-२५ दल होते हैं जिनका नाम तो महामंत्री भी एक सांस में नहीं बता सकता।  वोट, रैलियां, वर्ग भी जुगाड़  से बनते हैं।  आम आदमी दाल रोटी और आने  जाने के लिए रेल - बस में लटक पटककर,  दिन गुजारने का जुगाड़ करता है।  बैंक और बीमा संस्थाएं जुगाड़ से अपने टारगेट पूरा करती हैं।  जुगाड़ से ही अच्छे संस्थानो में दाखिले मिलते हैं।  जुगाड़ से ही नौकरी मिलती है।  जुगाड़ से ही दोस्तियां होती हैं।  यहाँ तक कि जिन प्रबंध संस्थाओ से आप MBA करवा के प्रबंधक बनाना चाहते हैं वहाँ के हज़ार में से दो चार जुगाड़ियों का ही अच्छा पेलसमेंट होता है, और वह भी जुगाड़ से होता है।  जुगाड़ के बिना तो एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल है।  हमारे चारों तरफ जुगाड़ ही जुगाड़ है।  जुगाड़ है तो जीवन है।  जुगाड़ ही प्रबंधन है।  "प्रबंधन" शब्द भ्रामक और मिथ्या है, जुगाड़ ही सत्य, यथार्थ और शाश्वत है।

जुगाड़ सीखने के लिए किसी प्रबंध संस्थान कि नहीं अपितु अपने अगल बगल से सीखने कि आवश्यकता है।  इस देश में जुगाड़ियों के रूप में सैकड़ों प्रबंधक घूम रहे हैं जो तकनीक में पढ़े लिखे प्रबंधकों और इंजीनियरों से कहीं कम नहीं हैं और उन्हीं जुगाड़ियों की बदौलत देश उन्नति के इस शिखर तक पहुंचा  है।  आवश्यकता है तो बस स्वदेशी तकनीक अर्थात "जुगाड़" अपनाने की, इसे रेकग्निशन (recognition) देने और विकसित करने की।

मेरा सर खपाऊ व्याख्यान सुनकर मेरे सहकर्मी मित्र मुस्कुराते हुए उठे.। आधा कप चाय छोड़कर सोचने की मुद्रा में अपने बुद्धिजीवी होने का प्रमाण देते हुए चल दिए।  मैंने उन्हें पीछे से आवाज़ दी, वापस बिठाकर चाय का दूसरा गरम प्याला मुस्कुराते हुए पकड़ा दिया और उन्ही के वाहन से दफ्तर जाने का जुगाड़ कर लिया।  उनके चेहरे की दबी मुस्कान जता रही थी कि उन्होंने भी जुगाड़ कर लिया था -सुबह की दो कप रेडीमेड चाय का! आप भी करिये … :) :) :)   

Monday, December 2, 2013

क्षणिका

मैं बहुत खुश था
अपनी ज़िंदगी से
ज़माने की नज़र लग गई,
मैंने इश्क कर लिया!   

Friday, November 29, 2013

सचिन को भारत रत्न पर विवाद क्यूँ? (व्यंग )


अभी हाल ही में सचिन को भारत रत्न मिलने पर कुछ बुद्धिजीवियों को असह्य  पीड़ा हुई है… सारे अखबार,फेसबुक, ब्लॉग्स आलेखों से रंग  डाले। ऐसे चुनिंदा  बुद्धिजीवी पीडितो से मैं पूछना चाहता  हुँ कि भारत रत्न अगर सचिन को  नही, तो क्या आपको मिलना चाहिए था क्या? अगर सचिन ने कुछ नही किया तो आपने ऐसा क्या  कारनामा कर डाला कि आपको मिले?? कुछ लोग कह रहे हैं कि सचिन ने खेल से पैसा कमाया है। तो आप ये बताएं कि आप कहीं भी नौकरी या व्यवसाय करते हैं, तो फ़ोकट में करते हैं क्या?? या  जिनको अब तक भारत रत्न मिले उन्होंने फ्री में सेवा की है क्या देश की ? कुछ लोगो ने कहा कि क्रिकेट  भारतीय देशी खेल नहीं है… ऐसे लोगों से मैं पूछना चाहता हूँ कि भाई साहब! आप देशी तलवारों के भरोसे जब लड़े थे ही, तो बाबर की तोपों  के सामने क्यों घुटने टेक दिए??? अंग्रेजों की गुलामी क्यों क़ुबूल कर ली??  ...अंग्रेजों की चाय तो बड़े मजे से पी लेते हैं आप…  आप स्वदेशी हैं तो कम्पुटर पर फेसबुक क्यूँ  करते हैं? चैटिंग क्यूँ करते हैं?  यह भी तो भारतीय  संस्कृति नहीं है, मशीन भारतीये नहीं है… आप स्याही और पेड़ के पत्तों पर ही लिखिए न। । और अगर आप बात करें तो क्रिकेट को छोड़कर दूसरे किस खेल में आप तीस मार खां हैं?? दूसरे खेलों में कितने मैच जीतें हैं ज़रा गिनाये तो?? ओलम्पिक में तो क्रिकेट नहीं है वहा कौनसे  झंडे गाड़ दिए आपने?  क्रिकेट में अगर अच्छा प्रदर्शन देश की टीम कर रही है तो प्रोत्साहन तो मिलना ही चाहिये ना । और अगर आप इसे राजनीति से जोड़ते हैं तो कृपया अपनी मानसिकता ऊपर  उठाइये, अगर कोंग्रेस नही देती तो भाजपा देती सचिन को भारत रत्न… क्यूंकि इस वक्त सचिन ही भारत रत्न के सर्वाधिक हकदार व्यक्तियों में से हैं, आप और मैं नहीं …और हाँ , देश में इसका विरोध जताने वालों में करोडो बुद्दिजीवी प्राणी ऐसे भी हैं, जो सचिन को भारत रत्न की घोषणा से पहले भारत रत्न के बारे में जानते भी नहीं होंगे कि आखिर भारत रत्न होता क्या है…। इस देश के लिए सबसे बड़ी विडंबना इस बात की है कि लोग जानते कुछ नही हैं और हर नयी चीज़ का विरोध कर अपने बुद्धिजीवि होने का दवा करते हैं..... चलिए आप विरोध करीय विरोध के सिवा आप कर भी क्या सकते हैं?? हाँ, आप यह कर सकते हैं कि आप भारत रत्न नहीं पा सकते और जो पा जाता है उसका विरोध कर  सकते हैं.…  तो  जताते रहिये विरोध, देश के संविधान ने  आपको अधिकार दिया है। …संविधान  द्वारा प्रदत्त कर्तव्यों की तो आप कभी बात करेंगे नहीं??? ..........              

Wednesday, November 20, 2013

पिघलते प्रश्नो पर (क्षणिका)

तेरी  आँखों से
पिघलते प्रश्नों पर
जवाब लिखा था कभी
खामियाज़ा भुगत रहा हूँ
आज तक!!!

Tuesday, November 19, 2013

अज्ञान (क्षणिका)

अज्ञान,
ज्ञान के लिए
उतना ही महत्व्पूर्ण है
जितना
अज्ञात,
ज्ञात के लिए
और शून्य,
ब्रह्माण्ड के लिए!!! 

Sunday, November 17, 2013

चलना है यारों

(वर्ष २००५ में लिखी एक कच्ची कविता जो अभी तक अधूरी है। फिर भी लुप्त होने से बचाने  के लिए पोस्ट कर रहा हूँ )

सफ़र है बहुत लम्बा
पर चलना है यारों
कोई साथ  चले न चले,
अकेले ही  कदम बढ़ाना है यारों।

समय दौड़ेगा सतत
अकेला, अमूर्त, फिर भी मजबूत
प्रहर आठ पूरे  मिले न मिले,
पर चलना है यारों।

पथ होगा पथरीला कंटीला,
लोग कहें चलना हमारी भूल
पर रेगिस्तान में गंगा लानी है तो
नंगे पैर भी चलना है यारों।

यह ठोस आधार नही कि
कोई गया नही  कभी उस तरफ
गर रचना है इतिहास तो,
प्रथम बार चलना है यारों।  

Monday, October 7, 2013

क्षणिकाएं

१. 
मुझे ऊँचाई पर चढ़ने का 
बहुत शौक था 
ऊंचाई पर पहुंचा तो पाया 
वहाँ,
"पर" काम नहीं करते!

२. 
करने वाला कुछ 
ग़लत नहीं करता 
अच्छा या बुरा यह,
ज़माना तय करता है!

३. 
अवसर देता दस्तक 
हर द्वार-हर घर 
कुछ पहचान लेते हैं 
कुछ कहते हैं,
बाद में आना!

४. 
किनारों का वजूद नदी से है 
नदी का किनारों से 
किनारे फ़र्ज़ अदा करते हैं 
नदी वक्त निकलने पर 
बिगाड़ देती है!

Thursday, August 1, 2013

​टांग थ्योरी :) (व्यंग)

​बस अभी पंद्रह मिनट पहले की ही बात है. बरसात के बाद सिन्धु घाटी सभ्यता कालीन दिखती सड़कों, जिस पर गड्ढों में पानी और कीचड जम जाता है,  मैं पैर साधते हुए और पाजामा बचाते हुए गुज़र रहा था.   तभी एक महानुभाव दुपहिया  फटफटिया फर्राटे से दौडाते हुए निकल  गये, मानो शोएब अख्तर से तेज़ सड़क पर उड़ना  चाहते हों. विज्ञान के सिद्धांत के मुताबिक  कीचड उछलकर मेरे एक पैर के पायजामे पर  काले रंग से दुनिया के छोटे बड़े देशों  के मानचित्र बना  गया . एक पैर की सफेदी और दुसरे पैर की रंगीन पिच को देख दस कदम दूर खड़े होकर  वही महानुभाव  मंद-मंद मंदबुद्धि जीव की तरह मुस्कुरा रहे  थे. मुस्कुराएंगे भी क्यूँ नहीं?  दूसरों पर कीचड उछालने   में आनंद लेना  तो मानव का प्रथम मौलिक कर्तव्य है. 
​ मैंने उसकी जले पर नमक छिड़कती हंसी पर आत्म नियंत्रण करते हुए उनसे पूछ ही लिया-बंधू! आपने मेरी एक ही तो टांग खराब  की है, दूसरी भी सलामत है और पूरा बदन  भी. फिर सिर्फ एक टांग पर ही जिद्दी दाग लगाकर क्यूँ मुस्कुरा रहे हो?

​महानुभाव ने फ़रमाया-जनाब! मैं आपकी टांग की दुर्दशा पर नहीं, टांग थ्योरी पर मुस्कुरा रहा हूँ. आप भी सुनेंगे  तो गुस्सा  थूंक ​देंगे।  मैंने कहा- फरमाइए! क्यों  न शुरुआत आप ही से की जाए !​ महानुभाव बोले  -जनाब !टांग थ्योरी पवार का प्रतीक है. जिसकी जितनी मजबूत  टांग वह उतना ही पावरफुल। अगर आपकी टांग मजबूत है तो आप कहीं भी टांग अड़ा सकते हैं. अच्छे -   खासे धावक को गिरा सकते हैं. जो आपसे पीछे है उसे टांग लगाकर  रोक सकते ​हैं. टांग  की बदौलत ही ओलम्पिक जैसे नामी  खेलों में पदक जीते जाते है. टांग से ही क्रिकेट में नो बॉल फेंककर आप मैच गंवा सकते  है. आपकी एक टांग न हो तो विकलांग का दर्जा  पाकर अच्छी नौकरी पा सकते है. टांग उचित आकर की हो तो ब्रांडेड जूता पहन सकते हैं और मौका मिलने पर वही जूता आपके किसी पसंदीदा नेता की दिशा में फेंककर प्रसिद्ध हो सकते है. और तो और घोडा भी जब बिदकता है तो टांग से ही प्रहार करता है और आदमी भी  सारे अस्त्र -​शस्त्र  असफल रहने पर लात ही मारता है. टांग की बदौलत ही आदमी अच्छे से अच्छे​  रिश्ते ठुकरा देता है और उसी टांग से ठोकर खाकर गिर पड़े तो अपने दांत तुडवा सकता है. तो टांग को कमजोर न समझें. आप इसी पर  अच्छी तरह टिकें और अच्छी तरह टिकने के लिए दोनों टाँगे मजबूत हों तो आप सौभाग्य शाली है. देश को भी दोनों टांगो (पक्ष-विपक्ष) के बीच अच्छे तालमेल की जरुरत है वरना एक टांग के  भरोसे रहने पर लडखडाने की संभावना ज्यादा है. रेस में जीतने के  टांगो से तेज़ दौड़ना पड़ेगा. टांग वहीं अडाई जाये जहां आवश्यकता है. टांग अड़ाकर दुसरे को गिराने और उसी टांग से ठोकर खाकर गिरने में सभी का घाटा है. तो जनाब आप भी अपनी टाँगे मजबूत बनाएं. टाँगे संभलकर रखें ताकि वहाँ काम ली जा सके जहाँ जरुरत है. 

​महानुभाव की बात मेरी समझ में आ गई. अब जब भी चलता हूँ, गुन्गुनाते हुए चलता हूँ -एय भाई! जरा देख के चलो…आगे ही नहीं पीछे भी। …. ऊपर ही नहीं नीचे भी … ।और कीचड का क्या? पूछ लेता हूँ फिर चिपका लेता हूँ। ।भाइयों! यह टांग है बड़े काम की चीज़ …इसे बचाकर चलिये… कल काम आयगी,  कहीं अडाने में कहीं चलाने मे….:) ​:):)  

Tuesday, July 23, 2013

धर्म समाज को जोड़ता है या तोड़ता है?



वर्तमान दौर में लोग धर्म के नाम पर बंटे ह्युए है. जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि के नाम पर लोगो ने अपने आपको बाँट लिया है. समाज ने खुद को पहले धर्मं के नाम पर अलग अलग किया, फिर जातियों के नाम पर, फिर उपजातियों के नाम पर. फिर उसमे भी गौत्र के नाम पर, और भी  कई तरह से धर्म के नाम पर समाज ने अपने बीच दीवारें चुन लीं और ऊंच - नीच छोटे-बड़े का भेद पैदा कर लिया.   धीरे धीरे यह स्थिति आज भयावह हो गई है, जहां आतंकवाद धर्म का ही परिणाम है. वहीं आज धर्म  के नाम पर ही तुच्छ राजनीति  होने लगी है. कहीं मंदिर मस्जिद के लिए समाज को  तोडा जाता है, कहीं जातिगत आरक्षण के नाम पर. यहाँ तक कि समाज ने जाति - सम्प्रदाय के नाम पर अपने पूजा स्थल भी कालांतर में अलग अलग कर लिये.

परन्तु, यथार्थ में देखा जाए तो समाज का खंड खंड होना धर्मं का परिणाम नहीं है. विडंबना यह रही है की लोगों ने धर्म को तो अपनाया लेकिन धर्म के मर्म को नहीं. समाज ने धर्म का अन्धानुकरण किया. धर्म में जो सन्देश लिखा है उसे समझने की किसी ने कोशिश नहीं की बल्कि हर व्यक्ति ने उसकी अपने ढंग से, अपनी सुविधानुसार, अपने दृष्टिकोण से व्याख्या की है. व्यक्ति ने धर्म को  उसी तरह समझा, जैसा उसने समझना चाहा और उसे   लेकर कट्टर बन गया जो कि निश्चित रूप से संकीर्ण मानसिकता का ही परिणाम है.

वरना, धर्म ग्रंथों ने तो सदा ही मानव जाति को एक समझा. एक ही परमात्मा को सबका रचनाकार बताया है. "वासुधैव कुटुम्बकम" जीवन का सूत्र रहा है. धर्मो ने जीवन के  तरीके बताये हैं . अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग बताये हैं. धर्मो का उद्देश्य हमेशा  जोड़ना रहा है. आवश्यकता इस बात की  है कि समाज के हर तबके को शिक्षित बनाया जाए  ताकि  बुद्धि का विकास हो सके और वो धर्म को उन्ही अर्थों में समझें ,   जिन अर्थों में उन्हें लिखा गया है. धार्मिक कट्टरता के स्थान पर  आवश्यकता है एक धार्मिक चेतना की ताकि धर्मो का सार ग्रहण किया जा सके. धर्म के मर्म और परमात्मा के सन्देश को सही अर्थों में समझा  जा सके.  तभी समाज आपस में जुड़ेगा, टूटेगा नहीं. सिर्फ एक इश्वर होगा और एक ही धर्म होगा और एक ही जाति होगी-मानव जाति. और जीवन का सूत्र होगा-"वासुधैव कुटुम्बकम". 


Tuesday, January 22, 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन


वर्तमान दौर में अक्सर देखा जा रहा है कि लोग समाज की बुराइयाँ गिनाते रहते हैं। कोई पुरुष प्रधान होने की बुराई गिनाता है कोई स्त्री केन्द्रित होने की, और कोई भाषा, वेशभूषा, रहन - सहन, में आते बदलाओं की। परन्तु सिर्फ बुराइयां देखने के साथ साथ समय के अनुसार जरुरी बदलाओं पर भी गौर किया जाना चाहिए। अठारवीं सदी के विचारों पर ही बढे चले जाना किसी भी स्थिति में उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से इक्कीसवीं सदी के भारत में समाज में आमूल चूल बदलाव आये हैं जहां स्त्रियों ने अपनी क्षमताओं को सिद्ध किया है। वहीं कुछ बदलाव प्रशंसनीय नहीं रहे विशेष तौर पर पहनावे में बदलाव और डिस्क जाना आदि। परन्तु इसे भी पूरी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता क्यूंकि किसी न किसी परिवेश में इसे स्वीकार भी किया जाता है। निश्चित रूप से पाश्चात्य संस्कृति को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वो नैतिक मूल्यों को बनाये रखे। दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है अगर हम उसे अच्छी नज़र से देखें। सबकी नज़र अच्छी रहे इसके लिए पुरुष हो या स्त्री समय और परिवेश के अनुसार उसे ढाल लेना चाहिए। यह भी सत्य है की युवा सिर्फ वही करना चाहते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, इसमें भी कोई बुराई नहीं है परन्तु इस बिंदु पर बहुत अधिक सावधान और मर्यादित होने की आवश्यकता है। मर्यादाएं निर्धारित करने का भी कोई मापदंड नहीं है और जहा कोई पैमाना न हो वहाँ वह किया जाना चाहिए जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकार्य हो और अपनी संस्कृति के अनुसार हो। वर्तमान परिदृश्य में समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए हमे सार्थक चिंतन की आवश्यकता है। ऐसे विचार अपनाये जाने चाहिए जो समाज को बिना भटकाए सही दिशा में ले जाये। जो कुछ खुलापन हो, मर्यादित हो। नैतिक मूल्य बढ़ें। आवश्यकता है की युवा और सम्मान नीय अनुभवी  व्यक्तित्व मिलकर वैचारिक क्रांति लायें। समाज में शिक्षा का प्रसार किया जाये। लोगो की मानसिकता बदलने का प्रयास किया जाए। वैचारिक क्रांति ही समाज का उत्थान कर सकती है , कोई संगठन या आन्दोलन नहीं।

Monday, January 14, 2013

दर्द किससे कहूं?

तुमसे पहली मुलाकात
फिर उसके बाद
बार बार मिलना
सुबह, शाम, दोपहर
जब जी चाहे सम्मुख होना।

आहिस्ता-आहिस्ता
मोहब्बत हो गई मुझे
हर उस जगह से
जहां तेरे कदम पड़ते थे
मेरे साथ साथ। 

उन हवाहों से
उन खुशबुओं से
उस मौसम से
उस आसमान से
जो हमने महसूस किया था
साथ साथ।

यहाँ तक कि अब तो
वो हर घडी भी
धड़कने बढ़ाती हैं
जिस क्षण
तुम मेरे सम्मुख होती थी।

मिलने की वो उत्सुकता
वो पागलपन
कि तुम
जब बुलाता,
चली आती थी
और मैं करने लगता
इंतज़ार और इंतज़ार।

अब, जब तुम जा रही हो
तो मैं तुझे खोने का दर्द
न सह सकता हूँ
न किसी से कह सकता हूँ।

तुम समझो मेरी पीर
तुम्हे रोम रोम में बसाया है
मेरी हर साँस,
तुमसे ही ज़िंदा है। 

प्रेयसी!

ये दर्द मैं
किसी को बयां नहीं कर सकता
दूसरों को कहूँगा तो
खिल्ली उड़ायेंगे लोग,
मेरी मोहब्बत की
तुझसे कहूँगा तो तू,
अहंकारी हो जाएगी!!!

 

Sunday, January 6, 2013

(चार महीने बाद बमुश्किल कलम से कुछ उतरा। पेश है पत्थर  के कुछ ज़ज्बात जो हम कभी समझने की कोशिश नहीं करते।।।)

मैं पत्थर

मैं पत्थर
शायद बहुत कठोर
क्यूंकि तुम इंसान 
ऐसा समझते हो।

प्रहार करते हो
अपने स्वार्थ के लिए
तराशने के बहाने
काया छिन्न भिन्न कर देते हो
भगवान् बनाकर पूजते भी हो तो
अपने लिए।

और मैं तो तुम्हारे लिए ही
बांधों में चुना जाता हूँ
दीवारों में चुना जाता हूँ
कब्र बनता हूँ 
स्मारक बनता हूँ  
       
रास्ते में फेंक देते हो
तो ज़माने की ठोकरें सहता हूँ
फिर भी बद दुआएं ही पाता हूँ।

तुम्हारे जन्म से लेकर
मृत्यु तक  हर अवस्था में
तुम्हारे इर्द गिर्द सहारा देता हूँ।

पर, फिर भी तुम मुझे
हेय दृष्टि से देखते हो
मेरी तोहीन करते हो
किसी को यह कहकर कि,
अरे! पत्थर मत बन।

इंसानों! कभी तो समझो
मेरे भी जज़्बात हैं
मुझे भी मोहब्बत है
अपने आस पास की
आबो हवा से, लोगों से
पानी से, पेड़ों से, जीवों से।

मुझे जब चाहे तोड़-फोड़कर
यहाँ से वहाँ मत फेंको
मुझे भी ज़िंदा रहने दो
मेरी मोहब्बत के साथ।।।