Tuesday, January 22, 2013

सामाजिक स्थिति और चिंतन


वर्तमान दौर में अक्सर देखा जा रहा है कि लोग समाज की बुराइयाँ गिनाते रहते हैं। कोई पुरुष प्रधान होने की बुराई गिनाता है कोई स्त्री केन्द्रित होने की, और कोई भाषा, वेशभूषा, रहन - सहन, में आते बदलाओं की। परन्तु सिर्फ बुराइयां देखने के साथ साथ समय के अनुसार जरुरी बदलाओं पर भी गौर किया जाना चाहिए। अठारवीं सदी के विचारों पर ही बढे चले जाना किसी भी स्थिति में उपादेय नहीं है। निश्चित रूप से इक्कीसवीं सदी के भारत में समाज में आमूल चूल बदलाव आये हैं जहां स्त्रियों ने अपनी क्षमताओं को सिद्ध किया है। वहीं कुछ बदलाव प्रशंसनीय नहीं रहे विशेष तौर पर पहनावे में बदलाव और डिस्क जाना आदि। परन्तु इसे भी पूरी तरह से गलत नहीं कहा जा सकता क्यूंकि किसी न किसी परिवेश में इसे स्वीकार भी किया जाता है। निश्चित रूप से पाश्चात्य संस्कृति को ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते वो नैतिक मूल्यों को बनाये रखे। दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है अगर हम उसे अच्छी नज़र से देखें। सबकी नज़र अच्छी रहे इसके लिए पुरुष हो या स्त्री समय और परिवेश के अनुसार उसे ढाल लेना चाहिए। यह भी सत्य है की युवा सिर्फ वही करना चाहते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, इसमें भी कोई बुराई नहीं है परन्तु इस बिंदु पर बहुत अधिक सावधान और मर्यादित होने की आवश्यकता है। मर्यादाएं निर्धारित करने का भी कोई मापदंड नहीं है और जहा कोई पैमाना न हो वहाँ वह किया जाना चाहिए जो समाज में व्यापक रूप से स्वीकार्य हो और अपनी संस्कृति के अनुसार हो। वर्तमान परिदृश्य में समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए हमे सार्थक चिंतन की आवश्यकता है। ऐसे विचार अपनाये जाने चाहिए जो समाज को बिना भटकाए सही दिशा में ले जाये। जो कुछ खुलापन हो, मर्यादित हो। नैतिक मूल्य बढ़ें। आवश्यकता है की युवा और सम्मान नीय अनुभवी  व्यक्तित्व मिलकर वैचारिक क्रांति लायें। समाज में शिक्षा का प्रसार किया जाये। लोगो की मानसिकता बदलने का प्रयास किया जाए। वैचारिक क्रांति ही समाज का उत्थान कर सकती है , कोई संगठन या आन्दोलन नहीं।

Monday, January 14, 2013

दर्द किससे कहूं?

तुमसे पहली मुलाकात
फिर उसके बाद
बार बार मिलना
सुबह, शाम, दोपहर
जब जी चाहे सम्मुख होना।

आहिस्ता-आहिस्ता
मोहब्बत हो गई मुझे
हर उस जगह से
जहां तेरे कदम पड़ते थे
मेरे साथ साथ। 

उन हवाहों से
उन खुशबुओं से
उस मौसम से
उस आसमान से
जो हमने महसूस किया था
साथ साथ।

यहाँ तक कि अब तो
वो हर घडी भी
धड़कने बढ़ाती हैं
जिस क्षण
तुम मेरे सम्मुख होती थी।

मिलने की वो उत्सुकता
वो पागलपन
कि तुम
जब बुलाता,
चली आती थी
और मैं करने लगता
इंतज़ार और इंतज़ार।

अब, जब तुम जा रही हो
तो मैं तुझे खोने का दर्द
न सह सकता हूँ
न किसी से कह सकता हूँ।

तुम समझो मेरी पीर
तुम्हे रोम रोम में बसाया है
मेरी हर साँस,
तुमसे ही ज़िंदा है। 

प्रेयसी!

ये दर्द मैं
किसी को बयां नहीं कर सकता
दूसरों को कहूँगा तो
खिल्ली उड़ायेंगे लोग,
मेरी मोहब्बत की
तुझसे कहूँगा तो तू,
अहंकारी हो जाएगी!!!

 

Sunday, January 6, 2013

(चार महीने बाद बमुश्किल कलम से कुछ उतरा। पेश है पत्थर  के कुछ ज़ज्बात जो हम कभी समझने की कोशिश नहीं करते।।।)

मैं पत्थर

मैं पत्थर
शायद बहुत कठोर
क्यूंकि तुम इंसान 
ऐसा समझते हो।

प्रहार करते हो
अपने स्वार्थ के लिए
तराशने के बहाने
काया छिन्न भिन्न कर देते हो
भगवान् बनाकर पूजते भी हो तो
अपने लिए।

और मैं तो तुम्हारे लिए ही
बांधों में चुना जाता हूँ
दीवारों में चुना जाता हूँ
कब्र बनता हूँ 
स्मारक बनता हूँ  
       
रास्ते में फेंक देते हो
तो ज़माने की ठोकरें सहता हूँ
फिर भी बद दुआएं ही पाता हूँ।

तुम्हारे जन्म से लेकर
मृत्यु तक  हर अवस्था में
तुम्हारे इर्द गिर्द सहारा देता हूँ।

पर, फिर भी तुम मुझे
हेय दृष्टि से देखते हो
मेरी तोहीन करते हो
किसी को यह कहकर कि,
अरे! पत्थर मत बन।

इंसानों! कभी तो समझो
मेरे भी जज़्बात हैं
मुझे भी मोहब्बत है
अपने आस पास की
आबो हवा से, लोगों से
पानी से, पेड़ों से, जीवों से।

मुझे जब चाहे तोड़-फोड़कर
यहाँ से वहाँ मत फेंको
मुझे भी ज़िंदा रहने दो
मेरी मोहब्बत के साथ।।।