Wednesday, December 28, 2011

चाय

चाय तुम रंग रंगीली छैल छबीली हसीना हो
सच पूछो तो आयातित, विलायती नगीना हो.

तुम्हें पीकर मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता है
होठों से छूते ही दर्द सारा मिट जाता है.

स्वाद में कुछ मीठी, कुछ कसैली लगती हो
रंग तुम्हारा भूरा, करिश्मा जैसी दिखती हो

हर घर, होटल, सड़क में बस तुम्हारा ही बसेरा है
पीने वाले नतमस्तक, सब पर हक़ तुम्हारा है.

जो तुम्हें स्पर्श करे, वो तुम्हारा महत्व जाने
वरना अदरक का स्वाद बन्दर क्या पहचाने.

अब मैं कोई गीत, कहानी या कविता नहीं कह पाता हूँ
हर पन्ने-पन्ने पर शब्द-शब्द में तेरी महिमा लिखता हूँ.

:) :) :)

Thursday, December 22, 2011

जीना पड़ता है..

मचा हुआ है देश में हर तरफ हाहाकर
फिर भी यहाँ पर हो रही उनकी जय जयकार.

लूटने वाले लूट रहे
हा हा करके हंस रहे

वस्तुओं के दाम बढे, रूपए का मूल्य गिरा
इधर निफ्टी और सेंसेस, उधर उनका चरित्र गिरा.

खेल लुटे, संचार लुटे, और लुटी संपदा अपार
उनका मकसद एक रहा, करना पुरखों का प्रचार.

किसी को रोटी-कपडा मिले न मिले, क्या करना है
चार दिन का मौका है, लूट घर को भरना है.

'फ़ूड सिक्यूरिटी' में रोटी देकर, टैक्स के नाम पर छीन लेंगे
अपनी तो जेबें खाली हैं कहकर, विदेशों से भीख लेंगे.

बाहर निकलो तो आम आदमी को, मुंह छुपाना पड़ता है
खुदखुशी करना गुनाह है, बस इसलिए जीना पड़ता है!!!

Tuesday, December 20, 2011

जहां न पंहुचे रवि, वहां पहुंचे कवि

जहां न पंहुचे रवि
वहां पहुंचे कवि
यह तुलना करके
किसने किसका मान बढाया?
रवि का,
या कवि का?

या यह दोनों के
सामर्थ्य की परीक्षा है?

निश्चय ही सूरज
चमका देता है
ऊष्मा देता है,
जल, थल, नभ को
चाँद को, ग्रहों को
उपग्रहों को.

परन्तु उसके अपने
सामर्थ्य की सीमा है
वो नहीं जा सकता
परे, अपने आवरण से
रहना होता है स्थिर
अपने अक्ष पर
सहना भी पड़ता है
ग्रहण
समय समय पर.

वहीं,
कवि के सामर्थ्य की
कोई सीमा नहीं है
बिना पंख उड़ सकता है
सौरमंडल के भीतर भी
बाहर भी.

वायु के वेग से
तेज बह सकता है
सूर्य के तेज से अधिक
चमक सकता है
क्षण भर में कर सकता है यात्रा
ब्रह्माण्ड की.

सरस्वती की वीणा से
झरनों से, चक्रवातों से
गरजनों से, चमकती बिजलियों से
संगीत चुरा सकता है
उसे शब्दों में ढाल सकता है.

इससे भी परे वो
अपनी कल्पनाओ से
एक नई सृष्टि का
सृजन कर सकता है
मन-मस्तिष्क को जीत सकता है.

वह भी कह पढ़ सुन देख सकता है
जो यथार्थ में कहीं
देखा नहीं गया
रचा नहीं गया.

कवि की अपनी
अलग ही पहचान होती है
अद्वितीय हृदय, सोच, अभिव्यक्ति
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं
समान नहीं होती.

यही सामर्थ्य सिद्ध करता है
एक अद्भुत छवि
और कथन कि
जहां न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि..


Friday, November 25, 2011

जलेबी बाई-जलेबी बाई (तुकबंदी)

(शीर्षक वाला गाना कुछ ज्यादा ही हाल ही में प्रचलित हुआ.....इस पर कविता तो नहीं बन सकती...हाँ, तुकबंदी की जा सकती है.....आशा है आप भी इस स्वाद का आनंद लेंगे.....)

देखकर इस पोस्ट को न हो अचम्भित भाई
यह है आधुनिक सेलिब्रिटी नाम जलेबी बाई
बहुतों अनजान थे इससे अब कुछ पहचान पाई
जब से मल्लिका खाकर इसे स्क्रीन पर आई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

कई मिठाइयां रूखी हुई कई मिठाइयां फीकी
गोल गोल जब यह घूमी नाम कमाकर आई
काम धंधा सब छोड़ तुम भी गोल गोल घुमो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई...

सावन आया वाष्प उठी घनी घटा छाई
गोल ही बदरा बने गोल ही वर्षा आई
छाता छत बरसाती सब छोड़ दो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

फेसबुक ब्लोगिंग से क्या ख़ाक नाम कमाओगे
खुद लिखोगे खुद ही अपना पढ़ते रह जाओगे
कुछ गोल गोल सा मीठा स्वीटा लिखो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

गोल गोल ही दुनिया है गोल गोल ही तू बोल
स्वाद सारी दुनिया का तू बस अपनी जुबान से तोल
छोड़ दे सब खाना पीना नाम एक रट ले रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई.....

Sunday, October 23, 2011

फेसबुक न होता तो क्या होता

फेसबुक न होता तो क्या होता
मेरी सारी बकवास कौन सुनता
मन की भड़ास कौन झेलता
अच्छी बातें तो सब पसंद करते हैं
पर मेरे बासी शेरों पर वाह वाह कौन करता
फेसबुक न होता तो क्या होता....

अकेले पन में साथ कौन होता
भूख लगी, नींद नहीं, चाय पीनी है
ये फ़ालतू status कोई कैसे डालता 
दुसरे की महिला मित्रों के चित्र like कौन करता 
फेसबुक न होता तो क्या होता....

हीरा तो खुद चमक लेता है मगर
झंडू जैसी सूरतों को gorgeous कौन कहता
सुख में तो सब साथी होते किन्तु
दुःख बांटने वाला साथी कौन होता
फेसबुक न होता तो क्या होता....

नेकी कर फेसबुक में डाल कहावत
चरितार्थ कोई कैसे करता
सिर्फ प्रस्ताव स्वीकृति सिद्धांत पर
दोस्ती के मापदंड कौन तय करता
फेसबुक न होता तो क्या होता......

जिनमे दम और व्यक्तित्व है
वो तो बुक्स में फेस छपवा लेते
पर जो अक्ल से श्री शर्मा की तरह पैदल हैं
बेचारे उनका अपना क्या होता
प्रभु, ये फेसबुक न होता तो क्या होता......:):)



Friday, October 14, 2011

तुम आना मत भूलना


तुम इतनी कठोर 
कब से हो गई हो
कि जाने के बाद
नहीं देखती 
मुडकर भी!

एक तो वो दिन था
कि तुम एक पल के लिए भी
नहीं होना चाहती थी दूर
समय के लिए सचेत करती थी
कि फिर मिलना है
अल सुबह दस बजे.

और बार बार कहना
जल्दी आना-जल्दी आना
और कहना-क्या नया?
कब दावत? कब मिलवा रहे हो?
सुना है आपका कोई,
इंतज़ार करती थी
इसी भवन में!

तुम्हारी दिलचस्प बातों से
तुमसे, तुम्हारी अदाओं से
मैं तो यूँ ही, प्यार कर बैठा था
आँखे मूंदे, बिना सोचे, बिना समझे
और शायद तुम भी करती थी
बहुत हद तक.

पर चंद समय की दूरियों ने ही 
ऐसा क्या फासला बढ़ा दिया कि
अब तो तुम्हारा कोई ख़त, सन्देश
फोन भी नहीं आता,
यहाँ तक कि हिचकी भी नहीं!

तुम्हारे नाम की हिचकी का 
इंतज़ार करते करते 
मैं सुबह से शाम कर देता हूँ
मुझे देखते देखते ऱोज
डूब जाता है सूरज.

फिर चाँद निकल आता है
तो तुम्हे आसमान में ताकता हूँ
कि हो सकता है कहीं
तुम्हारे बदन की चांदनी उसमे समाहित हो
और मुझे नज़र आ जाए.

समय चक्र चलता रहता है
फिर अमावास आ जाती है
तुम न आओ, न सही
जब मेरी ज़िन्दगी की अमावास आए
तुम आना मत भूलना...
 

     

Wednesday, September 14, 2011

राष्ट्रीय एकता


हम दावा करते हैं
ग्लोबल होने का

बड़ी बड़ी बातें करते हैं
देश की विदेश की
विश्वस्तरीय भाषा
सभ्यता और संस्कृति की.

बताते हैं अनेकता में एकता
राष्ट्रीय एकता.

परन्तु यथार्थ में
होने के बावजूद,
इक्कीसवीं सदी के

नाम जताने के पश्चात
अक्सर यही प्रश्न होते हैं
किस जाति के हो?
किस धर्म के हो?
किस राज्य के हो???