Wednesday, April 6, 2011

ऐ अजनबी!

ऐ अजनबी!
एक दिन तू अजनबी थी
कल न रही
आज फिर है.

अभी-अभी
तेरी झलक देखी थी
पल भर के लिए
छलक आई थीं, 
मेरी आँखे
कि आखिर तूने
याद तो रखा.

कुछ लफ्ज़
तेरे लबों से बिखरे 
मैंने उन्हें सहेजा,
अपनी रगों में
बदले में लुटा दी तुझे
दिल की धड़कने.

पर, इससे पहले कि
मैं तुझे 
जी भर के देख पाता
हो गई तू फिर ओझल
मजबूरियों का नाम देकर.

अब बस सूना आसमान है
हवाओं में खुशबू  वीरान है
मेरे शहर की गलियां सुनसान है
आखिर किन मजबूरियों ने तुझे बाँधा है
कि मेरा साया होकर भी तू अनजान है.

आओ!
आज अमावास क़ी रात है
तुम चाहो तो 
सारी मजबूरियां मिट सकती हैं
हर बंधन टूट सकते हैं
बस, 
इतने करीब आ जाओ कि
कल सूरज उगे तो
आज की रात के बाद हम 
अजनबी न रहें...!!!         
             

8 comments:

  1. कुछ लफ्ज़
    तेरे लबों से बिखरे
    मैंने उन्हें सहेजा,
    अपनी रगों में
    बदले में लुटा दी तुझे
    दिल की धड़कने.


    बहुत खूबसूरत एहसास ...

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  2. bahut sunder ehsaas. aapki manokaam niswaarth hai to avashy puri ho.

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  3. भाई देवेन्द्र जी सुंदर कविता के लिए बधाई |सुनहरी कलम पर आने के लिए आभार |

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  4. इतने करीब आ जाओ कि
    कल सूरज उगे तो
    आज की रात के बाद हम
    अजनबी न रहें...!!!
    बहुत सुंदर कविता
    कभी समय मिले तो shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी आयें

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  5. इसे कहते हैं दिल की गहराई से उपजी कविता।
    भावप्रवण रचना के लिए बधाई।

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  6. jeevan me logo ka karvan to aata jaata rehta par unme kuch khas hote hai jo jeevan bhar hume yaad rehte hai.....dere memories are lyk a shover in a hot day!!

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