Tuesday, May 11, 2010

चलन

एक बहन, एक बेटी
नन्हे कदमो से
ठुमकते, चलते
वक्त के गुजरते गुजरते
अठाकेलियाँ  करते करते
लड़ते झगड़ते
एक दिन हो जाती है
बड़ी.

इतनी बड़ी कि चली जाती है
किसी नए घर में
बेटी बनकर
और उसका अपना घर
पराया तो नहीं पर
अपना भी नहीं रह जाता.

और उसके अपने घर में
चली आती है एक नई बेटी
जो कुछ अरसे बाद
ले लेती है उसकी जगह.

इसी तरह गुजरते गुजरते
कुछ दिन, महीने और सालो बाद
हो जाता है उसका
पराया, अपना
और
अपना, पराया

कुछ तो इसको
त्याग कहेंगे
और कुछ कहेंगे
संसार का चलन!!!

7 comments:

  1. यह त्याग हो या चलन ....पर बेहद दुखदायी क्षण होते हैं अपने बचपन के घर , परिवार को छोड़ एक नए परिवेश में जाना ...ये भय लिए की न जाने वहाँ का क्या परिवेश हो ...

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  2. बड़ी ख़ूबसूरती से त्याग, अपना और जीवन का क्रम बताया है

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  3. chhotee see baat ko bahut sundar shabdon men ,sundar ehsas men piro kar pesh kiya gaya hai

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  4. कुछ तो इसको
    त्याग कहेंगे
    और कुछ कहेंगे
    संसार का चलन!!!

    TYAG AUR CHALAN KE BEECH KA SAMJHOTA AUR SHAYAD MAJBOORI KO BAKHUBI SHABDO ME DHALA HE......DEV SHAHAB YE SANSAR KA CHALAN HI HE JO SANSAR KO CHALA RAHA HE.. APNE KO PARAYA AUR PRAYO KO APNA BANANA HI NIYATI HE... WELL SAID SIR

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  5. बहुत ही मार्मिक कविता...इस कविता का मर्म वही समझ सकता है जिसने इन क्षणों को भोगा हो.
    जिसकी कोई बहन या बेटी बिछुड़ती है और अपने जी हां अपने घरचली गई हो.

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  6. "कुछ तो इसको
    त्याग कहेंगे
    और कुछ कहेंगे
    संसार का चलन!!"शर्मा जी वाकई एक भावना से पूर्ण,दिल से महसूसी गई रचना है 'चलन'.बेटी का बढ़ना और बढ़ाते रहना एक चलन नहीं तो और क्या है.इस भावना को मेरा नमन.

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