Saturday, June 25, 2011

दिल बहलाने के लिए

मैं दिल में जगह बनाता रहा
तेरे जख्म खाने के लिए
तू नादाँ सितम ढाती रही
दिल बहलाने के लिए...

मेहंदी से घरोंदे बनाए थे मैंने
तेरे हाथों को सजाने के लिए
तू बेदर्द शूल चुभोती रही
दिल बहलाने के लिए...

फूलों की जगह पलकें बिछाई थी मैंने
तेरे कदमो की मुझ तक राहों के लिए
तू कुचलती चली गयी
दिल बहलाने के लिए... 

स्याही  की जगह अश्कों से ख़त  लिखता  रहा
मेरे  अहसास  तुझे  जताने के लिए
तू कलम से जवाब चुभोती रही
दिल बहलाने के लिए...

मैं दिल पर पत्थर चुनता रहा
तेरे सपनो का महल बनाने के लिए
तू ढहाती चली गयी
दिल बहलाने के लिए...

Saturday, June 18, 2011

एक अनकहा सा प्यार

(कुछ बातें, कुछ यादें, हम ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाते. ऐसे ही मेरी अब तक की सबसे पसंदीदा पोस्ट आप सुधी पाठकों के साथ दुबारा शेयर करना चाहूँगा....) 

Friends, this is the first story, I have ever written. Everything in the story is fictitious though it may seem like some 'aap beeti'....just enjoy this sentimental beautiful story:

सुबह के साढ़े नो बजे मैं हमेशा कि तरह अपने ऑफिस में पंहुचा. घडी अपने निर्धारित समय से दस मिनट ज्यादा दिखा रही थी. मन ही मन लग रहा था आज कुछ हटके होने वाला है. कुछ अजीब सा अहसास मन में लिए मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया था. फिर अपना ईमेल चेक किया.  आज फिर उसी का ईमेल आया था जिसका मुझे पिछले कई महीनो से इंतज़ार था.

आज उसने अपने दिल के सारे उदगार उसमे उतार दिय थे, एक छोटी सी अनकही सी प्रेम कहानी के साथ. ख़त में हमारे डेढ़ महीने के साथ की यादें साफ झलक रही थी जब उसने और मैंने एक ही ऑफिस में काम किया था. कुछ हसीं ठिठोलियाँ हो जाया करती थी, चंद चुटकुले और कुछ मस्ती भरे शेर. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं था. पर आज का उसका ख़त अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था और एक अनकहा सा प्यार अपने आप में समेटे हुआ था.

लिखा था:-"क्या कोई किसी से सिर्फ डेढ़ महीने के साथ में ही इतना प्यार कर सकता है? क्या तुमने मुझे ठीक से पहचान लिया था? और तुमने इतने से दिनों में ही मेरे बारे में इतना बड़ा क्यों सोच लिया था? मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ अजनाबी थी न! फिर हमारा तो मज़हब भी अलग था! हम पहले कभी मिले भी तो नहीं थे! ना कभी साथ पढ़े, न खेले, न देखा!

फिर तुम मुझे देखकर इतना कयूँ  मुस्कुराते थे? बात बात पर मुझे हसाने कि कोशिश क्यों करते थे? मुझे हँसते देख तुम्हे बहुत अच्छा लगता था न!. फिर मुझे छोड़कर मुंबई क्यूँ चले गए थे? क्या तुम्हारे लिए नौकरी मुझसे भी ज्यादा जरुरुई थी? मैं तुमसे ऐसा तो नहीं चाहा था! चलो मान लेती हूं तुम्हारी भी कोई मजबूरी रही होगी! पर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि मुझसे मिलना तो दूर एक फ़ोन तक नहीं किया. क्या कभी  सोचा मैंने तुम्हारे बिना कैसे खुद को समझाया? तुम्हारी याद को छुपाने के लिए मैंने  अपनी सहेलियों से एक्साम कि टेंशन के बहाने बनाये . तुम्हारी तस्वीर को हमेशा दिल में छुपाये रखा ताकि मेरी भीगी आँखों में झांककर कोई पहचान ना ले कि इनमें कही ना कही तुम्हारी सूरत और इंतज़ार छिपा है.

फिर तुम्हारा २५ मार्च २००८ का वह ईमेल जिसमे तुमने मोहब्बत को जाहिर करने कि अल्ल्हड़ खता की थी. उसमे तुम्हारी पंक्तियाँ -"भोली सी इन आँखों ने फिर इश्क  कि जिद कि है, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है". उसमे लिखा तुम्हारा एक एक शब्द मेरी धड़कने बढ़ा रहा था. साँसे असंतुलित सी हो रही थी. हाथ पैर कांपने लगे थे. दिमाग काम करने कि हालत में नहीं रहा था. तुम्हारा वह ख़त मुझे सदमा सा पहुचने वाला था. क्युकी मुझे तुम्हारे सीधेपन को देखते हुए इसकी कभी उम्मीद नहीं थी. माना कि दिल के किसी कोने में मैंने तुम्हे बसा के रखा था. और ऐसे ही तुम्हारे इज़हार भरे किसी ख़त का मुझे इंतज़ार था. तुम्हारा वह ख़त पाकर मुझे लगा था शायद मेरा सोमवार का व्रत सफल हो गया है. और कुछ देर बाद मैंने सोच लिया था तुम्हे ख़त लिखकर तुम्हारे प्यार को स्वीकार करलूं और मेरे नाम के पीछे से 'जी' से शब्द हटाने का अधिकार तुम्हे दे दू. मैंने तुम्हे अंगीकार करने का फैसला कर लिया था. और तुम्हे अपना जवाब देने ही वाली थी.

फिर अगले ही पल तुम्हारा दूसरा ईमेल मिला जिसमें तुमने लिखा था कि जो तुमने अब तक कहा वो मज़ाक था. तुम मुझे चिरकुट बना रहे थे. वह सब अप्रैल फूल बनानके के लिए किया था. तुम्हारे उस दुसरे ख़त ने मुझे और भी गहरा सदमा दिया. मैं उस दिन पूरी तरह बिखर चुकी थी. मेरा रोम रोम पीड़ा कि आग में जल रहा था.मेरे चेहरे पर आई अचानक पसीने कि बुँदे बहुत कुछ बयान कर रही थी. फिर बार बार के तुम्हारे तर्क वितर्क से मैं हार चुकी थी. मैंने मान लिया था कि वो तुम्हारा एक मज़ाक ही था और अब वो ख़तम हो चूका है. मैं अपने अर्मानो  का गला घोंट चुकी थी. बार बार खुद को कोस रही थी कि पांच लम्हों पहले अगर तुम्हे जवाब दे देती तो शायद इस तरह बिखरने से बच जाती. तुम्हारे उस ख़त को मैं मीठा ज़हर समझकर पी गई थी. और उसके बाद आज जब डेढ़ साल गुज़र चूका है तुम्हे भुलाने में काफी हद तक सफल रही हूं.

आज फिर तुम्हारा ईमेल मिला. तुमने लिखा है:-"मैंने कब कहा कि तू मिल ही जा मुझे पर गैर ना हो मुझसे तू बस इतनी हसरत है तो है". और कि तुम्हारा वो ख़त मज़ाक नहीं प्यार का इजहार ही था. आज फिर मुझे सोचने पर मजबूर किया. लेकिन इसने मुझे उतना गहरा सदमा नहीं दिया. तुम्हारे जख्म खा खाकर मैं अब कठोर हो चुकी थी. आज के तुम्हारे ख़त का मेरे पास सपष्ट जवाब था. अब तुम मेरे लिए एक अबूझ पहेली बन चुके हो. मैंने तुम्हारा डेढ़ साल तक इंतज़ार किया. परन्तु तुमने वफ़ा नहीं कि और मैं बावफा होकर भी बेवफा बन गई. अब तुम मेरे लिए एक गैर हो, मैं किसी और कि होने वाली हूं. मेरी अब से तीन दिन बाद अपने ही पुराने किसी क्लास मेट से शादी होने वाली है. शायद तुमने वो मज़ाक नहीं बनाया होता तो आज भी मुझ पर सिर्फ तुम्हारा हक़ था. मगर अब बहुत देर हो चुकी है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना".

अब उसका ख़त ख़त्म हो चूका था और मुझे भी अपना जवाब मिल गया था. मेरी अपनी खाई हुई चोटें गहरी होती जा रही थीं. मेरी भावनाएं ताश के पत्तों कि तरह बिखर चुकी थीं. मैं ऑफिस से बाहर निकलकर आसमान में झाँकने लगा था. लग रहा था मानो पक्षी उड़ना भूल चुके हैं. हवा थम सी गई है. आसमान सिकुड़ चूका है. पेढ़ रूखे हो चुके हैं. चारो तरफ शान्ति छाई हुई है और एक वीरान दुनियां में मैं सिर्फ अकेला खड़ा हूं. लग रहा है जैसे सूरज हमेशा के लिए डूब चूका है. मेरा साया ही मुझसे कह रहा था.."अब कुछ नहीं साथ मेरे बस हैं खताएं मेरी". और मुंह से सिसकियों के साथ महज़ कुछ लफ्ज़ निकले जा रहे थे.."क्या तुम इतनी भी नादाँ थी कि न समझ सकीं ऐसा मज़ाक भी कोई करता है भला???

Thursday, June 16, 2011

तेरी बेवफाई, दो आंसू, सुरमा, टुकड़े

१.तेरी बेवफाई

तेरी बेवफाई
भिगो देती है रोज़
दिल को आंसुओं से
अच्छा है, हर दिन
धड़कने को मिल जाता है 
एक नया दिल!!!
  

२. दो आंसू

गैरों को भी अपना
समझ लेते हैं
गर कोई बहा दे
दो आंसू
झूंठे ही सही!!!

३. सुरमा

सुबह से सूरज
कहीं नज़र नहीं आया
तुमने आँखों में
सुरमा लगा लिया था क्या..!!!

४. टुकड़े

आज फिर तकरार हुई
कुछ टुकड़े तुमने किये
कुछ मैंने
खुदा दिल शीशे का क्यूँ बनाता है..!!           
    

Saturday, June 11, 2011

प्रकृति से एक प्रश्न...

हे प्रकृति!
कौन हो तुम?
क्या कभी दिया किसी को
अपना परिचय?

क्या तुम्हारा कोई भौतिक अस्तित्व है,   
चाँद, तारों, वनस्पति, आकाश में कहीं?
या मात्र एक कल्पना हो?
या हो महज़, बिग बेंग थ्योरी का एक विस्फोट?

क्या तुम्हारा प्रारब्ध उससे पहले भी था?
यदि था, तो किस प्रारूप में?
अगर नहीं, तो तुम जनित हो
जनित हो तो अमर नहीं हो सकती.

किसने किया था तुम्हारा सृजन?
ब्रह्मा, विष्णु या महेश?
या तुमने ही रचा था उन्हें?
यह भी अनुत्तरित है.

तुम ही निर्माण करती हो निर्वाण  भी  
अगर निर्माण तुम्हारा है 
तो फिर  निर्वाण की आवश्यकता क्यूँ ?
तुम तो अपना आकार बढ़ा सकती हो न!

बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी, ग्रहण 
यह सब तो तुम्हारे लिय खेल होंगे
अगर नहीं तो फिर
ये विनाश लीला क्यूँ?

या अमूर्त में जानू तो
क्या तुम ह्रदय में बसने वाली प्रीत हो?
या हो आत्मा का परमात्मा से मिलन?
यदि हाँ, तो जन्म मृत्यु क्यूँ?

हे प्रकृति!
मैं बहुत ही सूक्ष्म और क्षण भंगुर जीव हूँ
तुम्हारे बारे में नहीं लगा सकता
कोई भी अनुमान
प्रयास भी करूँगा तो रहूँगा नाकाम.

तेरी ही रचना होकर
तुझ ही से प्रश्न करता हूँ  
कृपा करके  दे दो मुझे
अपना परिचय
और निश्चय ही
मेरा भी!!!

Friday, June 3, 2011

मगर अफ़सोस

मैं तो बस यूँ ही
दिल को बहलाने के लिए
दर्द के टुकड़ों को
संजो संजोकर
कविता चुन लेता हूँ
मगर अफ़सोस
लोग उसमे भी मज़ा लेते हैं...!!!