सूर्य भगवान् के अलार्म के साथ ही मैं बाहर बैठकर राष्ट्रीय पेय पदार्थ चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। विज्ञापनो के बीच बिखरी पड़ी ख़बरें इधर उधर से ढूंढ ढांढकर पढ़ने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच मुझसे डबल उम्र के सहकर्मी मित्र आ पहुंचे। मैंने नमस्कार द्वारा उनका अभिनन्दन किया और रेडीमेड चाय का प्याला हाथ में थमा दिया। कहा गया है - "कुछ पीओ"! "मगर, साथ बैठ कर पीने का मज़ा ही कुछ और है"…. कुछ देर बाद अखबार के रंग बिरंगे कोचिंग संस्थाओ के विज्ञापन देखकर बोले- सर! किसी अच्छे MBA Entrance की पढ़ाई कराने वाले संस्थान का नाम बताएं। मैंने पूछा- क्यूँ जनाब? इस उम्र में MBA Entrance देकर क्यूँ भेड़ बकरियों की जमात में शामिल होना चाहते हैं? अपने वर्त्तमान से खुश नहीं हैं क्या? वो बोले- जनाब! बेटा MBA करना चाहता है। विदेश जाकर पढ़ना चाहता है। मैंने पूछा विदेश जाकर क्या पढ़ेगा? वो बोले-प्रबंधन की शिक्षा लेगा। मैंने कहा- तो उसके लिए विदेश जाने की क्या जरुरत? और बल्कि देश में भी किसी प्रबंधन पाठशाला (Management "School") की भी क्या??? वो तो हमारे देश के कण कण में व्याप्त है.
वो चौंके -क्या!
मैंने कहा-इम्तिहान में सोचिये जब आप कोई काम नहीं कर पा रहे होते हैं, तो ले देकर या येन केन प्रकारेण किसी युक्ति से काम चलाते हैं कि नहीं? और उस युक्ति को क्या कहते हैं?
'जुगाड़'-उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। मैंने तपाक से कहा-यही तो प्रबंधन है। प्रबंधन की परिभाषा भी तो यही है कि " किसी तरह से काम निकालना या काम चलाना"…. तो काम तो जुगाड़ से ही निकाला जाता है। हम रोज़ जुगाड़ करते हैं, रोज़ प्रबंधन करते हैं। आम आदमी से लेकर सरकारें तक जुगाड़ से चल रही हैं, पुरे पांच साल गुज़ार रही हैं। एक ही सरकार में २०-२५ दल होते हैं जिनका नाम तो महामंत्री भी एक सांस में नहीं बता सकता। वोट, रैलियां, वर्ग भी जुगाड़ से बनते हैं। आम आदमी दाल रोटी और आने जाने के लिए रेल - बस में लटक पटककर, दिन गुजारने का जुगाड़ करता है। बैंक और बीमा संस्थाएं जुगाड़ से अपने टारगेट पूरा करती हैं। जुगाड़ से ही अच्छे संस्थानो में दाखिले मिलते हैं। जुगाड़ से ही नौकरी मिलती है। जुगाड़ से ही दोस्तियां होती हैं। यहाँ तक कि जिन प्रबंध संस्थाओ से आप MBA करवा के प्रबंधक बनाना चाहते हैं वहाँ के हज़ार में से दो चार जुगाड़ियों का ही अच्छा पेलसमेंट होता है, और वह भी जुगाड़ से होता है। जुगाड़ के बिना तो एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल है। हमारे चारों तरफ जुगाड़ ही जुगाड़ है। जुगाड़ है तो जीवन है। जुगाड़ ही प्रबंधन है। "प्रबंधन" शब्द भ्रामक और मिथ्या है, जुगाड़ ही सत्य, यथार्थ और शाश्वत है।
जुगाड़ सीखने के लिए किसी प्रबंध संस्थान कि नहीं अपितु अपने अगल बगल से सीखने कि आवश्यकता है। इस देश में जुगाड़ियों के रूप में सैकड़ों प्रबंधक घूम रहे हैं जो तकनीक में पढ़े लिखे प्रबंधकों और इंजीनियरों से कहीं कम नहीं हैं और उन्हीं जुगाड़ियों की बदौलत देश उन्नति के इस शिखर तक पहुंचा है। आवश्यकता है तो बस स्वदेशी तकनीक अर्थात "जुगाड़" अपनाने की, इसे रेकग्निशन (recognition) देने और विकसित करने की।
मेरा सर खपाऊ व्याख्यान सुनकर मेरे सहकर्मी मित्र मुस्कुराते हुए उठे.। आधा कप चाय छोड़कर सोचने की मुद्रा में अपने बुद्धिजीवी होने का प्रमाण देते हुए चल दिए। मैंने उन्हें पीछे से आवाज़ दी, वापस बिठाकर चाय का दूसरा गरम प्याला मुस्कुराते हुए पकड़ा दिया और उन्ही के वाहन से दफ्तर जाने का जुगाड़ कर लिया। उनके चेहरे की दबी मुस्कान जता रही थी कि उन्होंने भी जुगाड़ कर लिया था -सुबह की दो कप रेडीमेड चाय का! आप भी करिये … :) :) :)
आजकल तो जुगाड़ भी तकनीकी हुआ जा रहा है।
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