तुम इतनी कठोर
कब से हो गई हो
कि जाने के बाद
नहीं देखती
मुडकर भी!
एक तो वो दिन था
कि तुम एक पल के लिए भी
नहीं होना चाहती थी दूर
समय के लिए सचेत करती थी
कि फिर मिलना है
अल सुबह दस बजे.
और बार बार कहना
जल्दी आना-जल्दी आना
और कहना-क्या नया?
कब दावत? कब मिलवा रहे हो?
सुना है आपका कोई,
इंतज़ार करती थी
इसी भवन में!
तुम्हारी दिलचस्प बातों से
तुमसे, तुम्हारी अदाओं से
मैं तो यूँ ही, प्यार कर बैठा था
आँखे मूंदे, बिना सोचे, बिना समझे
और शायद तुम भी करती थी
बहुत हद तक.
पर चंद समय की दूरियों ने ही
ऐसा क्या फासला बढ़ा दिया कि
अब तो तुम्हारा कोई ख़त, सन्देश
फोन भी नहीं आता,
यहाँ तक कि हिचकी भी नहीं!
तुम्हारे नाम की हिचकी का
इंतज़ार करते करते
मैं सुबह से शाम कर देता हूँ
मुझे देखते देखते ऱोज
डूब जाता है सूरज.
फिर चाँद निकल आता है
तो तुम्हे आसमान में ताकता हूँ
कि हो सकता है कहीं
तुम्हारे बदन की चांदनी उसमे समाहित हो
और मुझे नज़र आ जाए.
समय चक्र चलता रहता है
फिर अमावास आ जाती है
तुम न आओ, न सही
जब मेरी ज़िन्दगी की अमावास आए
तुम आना मत भूलना...
बहुत बढ़िया |
ReplyDeleteबधाई ||
http://dineshkidillagi.blogspot.com/
एहसासों की उधेड़बुन में पलते-उमड़ते शब्दों की सुंदर माला बुनी है...... :)
ReplyDeleteफिर चाँद निकल आता है
ReplyDeleteतो तुम्हे आसमान में ताकता हूँ
कि हो सकता है कहीं
तुम्हारे बदन की चांदनी उसमे समाहित हो
और मुझे नज़र आ जाए.
बहुत खूबसूरत एहसास लिखे हैं
सुन्दर रचना !
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना.
ReplyDeleteBahut behtarin rachna jisme bhavnaon ki gahrai hai. kavita saral evm bhodh gamya hai. Yahi lay banaye rahiye aur apne blog ko nayi bulandiyon par le jayiye.
ReplyDeletenischhal pyaar
ReplyDeleteunusually lovely :)
ReplyDeletelast verse was super !!
beharin bhavon se saji behtarin prem kavita...badhayee aaur amantran ke sath
ReplyDeleteसंबंधों में आते समयचक्र के प्रभाव को समझने की कोशिश.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
पूरी कविता आ गई, एक बड़ी हिचकी की तरह!
ReplyDeleteउफ़ ………………अब क्या कहूँ।
ReplyDeletebehtreeb abhivaykti...
ReplyDeleteओह! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है आपकी.
ReplyDeleteकुछ उलझती कुछ सुलझती हुई सी.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है.