एक बहन, एक बेटी
नन्हे कदमो से
ठुमकते, चलते
वक्त के गुजरते गुजरते
अठाकेलियाँ करते करते
लड़ते झगड़ते
एक दिन हो जाती है
बड़ी.
इतनी बड़ी कि चली जाती है
किसी नए घर में
बेटी बनकर
और उसका अपना घर
पराया तो नहीं पर
अपना भी नहीं रह जाता.
और उसके अपने घर में
चली आती है एक नई बेटी
जो कुछ अरसे बाद
ले लेती है उसकी जगह.
इसी तरह गुजरते गुजरते
कुछ दिन, महीने और सालो बाद
हो जाता है उसका
पराया, अपना
और
अपना, पराया
कुछ तो इसको
त्याग कहेंगे
और कुछ कहेंगे
संसार का चलन!!!