(अगर नजरिया नकारात्मक हो जाये, तो ज़िन्दगी कुछ यूँ दिखाई देती है....)
सुख की तलाश में
काटते गुजारते दिन
बरस छब्बीस गुजर गए
धीरे धीरे रिटायर हो जायेंगे
पहले नौकरी से
फिर ज़िन्दगी से.
बचपन में पढने का दुःख था
अब नौकरी का दुःख है
दफ्तर में बॉस का दुःख है
घर में बीवी का दुःख है
दोस्तों में बीमा करने वालो का दुःख है
बाहर निकलो तो दुकानदारों का दुःख है.
सोता हूँ तो नींद नहीं आती
चादर हटाता हूँ तो मछर काटते हैं
ओढ़ता हूँ तो गर्मी लगती है
स्विच दबाता हूँ, बिजली चली जाती है.
भूख लगती है तो मेस बंद मिलती है
खाना अच्छा बना हो तो भूख नहीं लती
जो मुझे पसंद करे उससे मुझे प्यार नहीं
जिससे मुझे प्यार है मुझे नहीं करती.
अपने दुखों का राग अलापता हूँ
सब कान बंद कर लेते हैं
इन्तहां तो अब हो गई है पागलपन की
कि सुख को गूगल में सर्च करता हूँ.
लिंक तो कई मिल जाते हैं सुख के
पर खुलता कोई नहीं है
किसी ने सही कहा था,
ज़िन्दगी गुलाबों की शैया नहीं
दुनिया दुखों का सागर है...!!!