माननीय आम लाल! आपकी स्थिति ग्राम पंचायत के तुक्के से जीते अनपढ़ रामलाल सरपंच जैसी बनी हुई है। पूर्णतया किंकर्तव्य विमूढ़! दिल्ली और भारत की समस्त भोली भाली जनता की तरफ से कसम है आप सब 'आप" वालों को अपने अपने खुदा की । सरकार बनानी है बनाओ नहीं बनानी है मत बनाओ। पर कम से कम जनता को मत पकाओ। जनता ने आपको सरकार बनाने का अधिकार दिया है पकाने का नहीं। आपने तमाशा खड़ा कर रखा है। कभी इससे पूछते हो कभी उससे पूछते हो। आपसे तो मौन मोहन जी अच्छे है जो सिर्फ एक ही इंसान से पूछते हैं। चिट्ठी पत्री का खेल नहीं खेलते। आपका छुपम छुपाई और चिट्ठी-पत्री, एस एम एस -एस एम् एस का खेल झेलना अब जनता के बस कि बात नहीं रही। कुछ तो रहम करो। १० दिन हो गये आपको। इतने दिनों में तो टेस्ट मैच का परिणाम आ जाता है। १८ दिनों में तो महाभारत जैसा महायुद्ध ख़तम हो गया था लेकिन आपकी आमलीला है कि ख़तम होने का नाम ही नहीं ले रही। खेल नही रेलमपेल हो रही है। आप इतना बोर करोगे तो दिल्ली की प्यारी प्यारी जनता दिल्ली छोड़कर भाग जायगी और उसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ आप होंगे। अगर आपको दुकान सेट करना आता ही नहीं, तो तम्बू लेकर बीच सड़क पर क्यूँ अड़के बैठ गए? दूसरों को तो अपना काम करने देते। न खाते हो न खाने देते हो। खाओ नहीं तो ढोलो ही सही, यह कहाँ की राजनीती है ? कबाब में हड्डी बने बैठे हो ? आपके सभी लोगो ने जनता और आम ये दो शब्द रट लिए तोते की तरह, कुछ भी पूछो इन दो शब्दों के अलावा और कुछ बोल पाते ही नही। बेचारी भोली भाली जनता ने क्या बिगाड़ा था आपका? जो इतना बोर करे जा रहे हो? अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो ? जल्दी निकलो जहां जा रहे हो :) पतंग का मांझा आपके हाथ में देकर जनता पछता रही होगी :):):)
जीवन बहती हवाओं का संगम है। हमारे विचार और भावनाएं भी इन हवाओं के संग बहते रहते हैं। इस ब्लॉग में मैंने कुछ ऐसे ही उद्गारो को अपनी लेखनी से उतारने की कोशिश की है। आपकी समालोचनाओं का स्वागत है। आशा है आप मुझे बेहतर लिखने के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। ब्लॉग पर आपका स्वागत हैI
Thursday, December 19, 2013
Thursday, December 12, 2013
आम के पेड़ में अंगूर (व्यंग)
मेरे अड़ौस में एक साल पहले एक पड़ौसी आया था, नाम है-आम लाल। और मेरा-जनता मल। वह जब से आया अपने घर के आँगन में आम के पेड़ लगा रहा है। बीज डाले, सिंचाई की सर्दी-गर्मी-बरसात तीनो मौसम। कुछ साथी भी बटौर लिए आम की खेती में। मेरी मजबूरी है कि मुझे उसके घर के सामने से गुज़रना पड़ता है। और उसको मुझसे कुछ ज्यादा ही चिढ है। जब भी मैं उसके घर के सामने से गुज़रता हूँ तो मुझे चिढ़ाने के लिए उसके मुख्य दरवाजे पर लटका हुआ प्लास्टिक का आम हाथ में पकड़ कर, बांहे चढ़ाकर, पैर फटकार कर कहता है- अरे जंनतामल! जाता कहाँ है? सुन ले! आम के पेड़ लगा रहा हूँ। जब ये पाक जायेंगे तो खूब खाऊंगा। तुझे तो चखाउंगा भी नहीं।
मैं उसे छोटा मोटा माली समझकर भाव ही नहीं देता था। बोलता था-तेरे जैसे माली ३६ हैं हिंदुस्तान में। तो वो पलट के जवाब देता-"लेकिन मैं अलग किस्म का माली हूँ। मेरे बाग़ में आम उगेंगे भी, खिलेंगे भी और फलेंगे भी। "
लेकिन मैं उसकी बात को बीड़ी के धुंए की तरह हवा में उडाता रहा।
और ऊपर वाले कि कृपा देखिये उसके ऊपर, आम के पेड़ में अंगूर निकल आये। आमलाल माली न रहकर-----हो गया, क्यूंकि अब उसके हाथ में अंगूर है।
अब जब खूब सारे अंगूर फल आये तो वो मुझे कहता है कि अंगूर तू खा ले।
पर मुझे समझ में यह नहीं आता कि वह अपने अंगूर मुझे क्यूँ खिलाना चाहता है? उसके खेत में उगे हैं, वह खाये। जश्न मनाये।
मुझे मेरे अगल वाले अड़ौसी से पता चला है कि उसको उसके बगल वाले पड़ौसी ने आठ अंगूर बिना किसी शर्त ऑफर किये हैं फिर भी आमलाल है कि टस से मस नहीं हो रहा। कहता है पूरे छत्तीस मेरे खेत में ही उगाऊंगा फिर ही खाऊंगा। जनतामल के पास ३२ हैं, पहले वह खाये।
मैं पूछता हूँ- प्यारे आमलाल! पहले तो तू सिर्फ आम उगाने की बात करता था। ३६ की तो कभी बात की ही नहीं। अब आम की जगह २८ अंगूर तेरे आम के खेत में निकल आये, तो आम के बाग़ में अंगूरी लताएँ फैलाना चाहता है। कल इसे अमरूदों का बाग़ बना देगा।
या प्यारे आमलाल, मैं यह समझ लूं कि तुझे अंगूर खाना ही नहीं आता? कहीं यह तो नहीं सोच रहा है कि कैसे खाऊँ? पीसकर, बांटकर या उबालकर? या जनतामल को चखाकर खाना चाहता है कि कहीं खट्टे तो नहीं? या मुझे खाते देखकर खाना सीखना चाहता है?? बबुआ ! अंगूर खाना भी कला है। ---- के हाथ में अंगूर टिकता नहीं बहुत दिन। मैं तो कहता हूँ मौका मिला है, पड़ौसी के आठ ले ले और खा ले! ज्यादा ऊँची नाक रखने में कोई फायदे नहीं है। आम के पेड़ में अंगूर एक ही बार निकलते हैं ठीक उसी तरह जिस तरह काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती :):):)
Tuesday, December 3, 2013
जुगाड़ एव प्रबन्ध: (व्यंग)
सूर्य भगवान् के अलार्म के साथ ही मैं बाहर बैठकर राष्ट्रीय पेय पदार्थ चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। विज्ञापनो के बीच बिखरी पड़ी ख़बरें इधर उधर से ढूंढ ढांढकर पढ़ने की कोशिश कर रहा था। इसी बीच मुझसे डबल उम्र के सहकर्मी मित्र आ पहुंचे। मैंने नमस्कार द्वारा उनका अभिनन्दन किया और रेडीमेड चाय का प्याला हाथ में थमा दिया। कहा गया है - "कुछ पीओ"! "मगर, साथ बैठ कर पीने का मज़ा ही कुछ और है"…. कुछ देर बाद अखबार के रंग बिरंगे कोचिंग संस्थाओ के विज्ञापन देखकर बोले- सर! किसी अच्छे MBA Entrance की पढ़ाई कराने वाले संस्थान का नाम बताएं। मैंने पूछा- क्यूँ जनाब? इस उम्र में MBA Entrance देकर क्यूँ भेड़ बकरियों की जमात में शामिल होना चाहते हैं? अपने वर्त्तमान से खुश नहीं हैं क्या? वो बोले- जनाब! बेटा MBA करना चाहता है। विदेश जाकर पढ़ना चाहता है। मैंने पूछा विदेश जाकर क्या पढ़ेगा? वो बोले-प्रबंधन की शिक्षा लेगा। मैंने कहा- तो उसके लिए विदेश जाने की क्या जरुरत? और बल्कि देश में भी किसी प्रबंधन पाठशाला (Management "School") की भी क्या??? वो तो हमारे देश के कण कण में व्याप्त है.
वो चौंके -क्या!
मैंने कहा-इम्तिहान में सोचिये जब आप कोई काम नहीं कर पा रहे होते हैं, तो ले देकर या येन केन प्रकारेण किसी युक्ति से काम चलाते हैं कि नहीं? और उस युक्ति को क्या कहते हैं?
'जुगाड़'-उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। मैंने तपाक से कहा-यही तो प्रबंधन है। प्रबंधन की परिभाषा भी तो यही है कि " किसी तरह से काम निकालना या काम चलाना"…. तो काम तो जुगाड़ से ही निकाला जाता है। हम रोज़ जुगाड़ करते हैं, रोज़ प्रबंधन करते हैं। आम आदमी से लेकर सरकारें तक जुगाड़ से चल रही हैं, पुरे पांच साल गुज़ार रही हैं। एक ही सरकार में २०-२५ दल होते हैं जिनका नाम तो महामंत्री भी एक सांस में नहीं बता सकता। वोट, रैलियां, वर्ग भी जुगाड़ से बनते हैं। आम आदमी दाल रोटी और आने जाने के लिए रेल - बस में लटक पटककर, दिन गुजारने का जुगाड़ करता है। बैंक और बीमा संस्थाएं जुगाड़ से अपने टारगेट पूरा करती हैं। जुगाड़ से ही अच्छे संस्थानो में दाखिले मिलते हैं। जुगाड़ से ही नौकरी मिलती है। जुगाड़ से ही दोस्तियां होती हैं। यहाँ तक कि जिन प्रबंध संस्थाओ से आप MBA करवा के प्रबंधक बनाना चाहते हैं वहाँ के हज़ार में से दो चार जुगाड़ियों का ही अच्छा पेलसमेंट होता है, और वह भी जुगाड़ से होता है। जुगाड़ के बिना तो एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल है। हमारे चारों तरफ जुगाड़ ही जुगाड़ है। जुगाड़ है तो जीवन है। जुगाड़ ही प्रबंधन है। "प्रबंधन" शब्द भ्रामक और मिथ्या है, जुगाड़ ही सत्य, यथार्थ और शाश्वत है।
जुगाड़ सीखने के लिए किसी प्रबंध संस्थान कि नहीं अपितु अपने अगल बगल से सीखने कि आवश्यकता है। इस देश में जुगाड़ियों के रूप में सैकड़ों प्रबंधक घूम रहे हैं जो तकनीक में पढ़े लिखे प्रबंधकों और इंजीनियरों से कहीं कम नहीं हैं और उन्हीं जुगाड़ियों की बदौलत देश उन्नति के इस शिखर तक पहुंचा है। आवश्यकता है तो बस स्वदेशी तकनीक अर्थात "जुगाड़" अपनाने की, इसे रेकग्निशन (recognition) देने और विकसित करने की।
मेरा सर खपाऊ व्याख्यान सुनकर मेरे सहकर्मी मित्र मुस्कुराते हुए उठे.। आधा कप चाय छोड़कर सोचने की मुद्रा में अपने बुद्धिजीवी होने का प्रमाण देते हुए चल दिए। मैंने उन्हें पीछे से आवाज़ दी, वापस बिठाकर चाय का दूसरा गरम प्याला मुस्कुराते हुए पकड़ा दिया और उन्ही के वाहन से दफ्तर जाने का जुगाड़ कर लिया। उनके चेहरे की दबी मुस्कान जता रही थी कि उन्होंने भी जुगाड़ कर लिया था -सुबह की दो कप रेडीमेड चाय का! आप भी करिये … :) :) :)
Monday, December 2, 2013
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