Wednesday, December 28, 2011

चाय

चाय तुम रंग रंगीली छैल छबीली हसीना हो
सच पूछो तो आयातित, विलायती नगीना हो.

तुम्हें पीकर मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता है
होठों से छूते ही दर्द सारा मिट जाता है.

स्वाद में कुछ मीठी, कुछ कसैली लगती हो
रंग तुम्हारा भूरा, करिश्मा जैसी दिखती हो

हर घर, होटल, सड़क में बस तुम्हारा ही बसेरा है
पीने वाले नतमस्तक, सब पर हक़ तुम्हारा है.

जो तुम्हें स्पर्श करे, वो तुम्हारा महत्व जाने
वरना अदरक का स्वाद बन्दर क्या पहचाने.

अब मैं कोई गीत, कहानी या कविता नहीं कह पाता हूँ
हर पन्ने-पन्ने पर शब्द-शब्द में तेरी महिमा लिखता हूँ.

:) :) :)

Thursday, December 22, 2011

जीना पड़ता है..

मचा हुआ है देश में हर तरफ हाहाकर
फिर भी यहाँ पर हो रही उनकी जय जयकार.

लूटने वाले लूट रहे
हा हा करके हंस रहे

वस्तुओं के दाम बढे, रूपए का मूल्य गिरा
इधर निफ्टी और सेंसेस, उधर उनका चरित्र गिरा.

खेल लुटे, संचार लुटे, और लुटी संपदा अपार
उनका मकसद एक रहा, करना पुरखों का प्रचार.

किसी को रोटी-कपडा मिले न मिले, क्या करना है
चार दिन का मौका है, लूट घर को भरना है.

'फ़ूड सिक्यूरिटी' में रोटी देकर, टैक्स के नाम पर छीन लेंगे
अपनी तो जेबें खाली हैं कहकर, विदेशों से भीख लेंगे.

बाहर निकलो तो आम आदमी को, मुंह छुपाना पड़ता है
खुदखुशी करना गुनाह है, बस इसलिए जीना पड़ता है!!!

Tuesday, December 20, 2011

जहां न पंहुचे रवि, वहां पहुंचे कवि

जहां न पंहुचे रवि
वहां पहुंचे कवि
यह तुलना करके
किसने किसका मान बढाया?
रवि का,
या कवि का?

या यह दोनों के
सामर्थ्य की परीक्षा है?

निश्चय ही सूरज
चमका देता है
ऊष्मा देता है,
जल, थल, नभ को
चाँद को, ग्रहों को
उपग्रहों को.

परन्तु उसके अपने
सामर्थ्य की सीमा है
वो नहीं जा सकता
परे, अपने आवरण से
रहना होता है स्थिर
अपने अक्ष पर
सहना भी पड़ता है
ग्रहण
समय समय पर.

वहीं,
कवि के सामर्थ्य की
कोई सीमा नहीं है
बिना पंख उड़ सकता है
सौरमंडल के भीतर भी
बाहर भी.

वायु के वेग से
तेज बह सकता है
सूर्य के तेज से अधिक
चमक सकता है
क्षण भर में कर सकता है यात्रा
ब्रह्माण्ड की.

सरस्वती की वीणा से
झरनों से, चक्रवातों से
गरजनों से, चमकती बिजलियों से
संगीत चुरा सकता है
उसे शब्दों में ढाल सकता है.

इससे भी परे वो
अपनी कल्पनाओ से
एक नई सृष्टि का
सृजन कर सकता है
मन-मस्तिष्क को जीत सकता है.

वह भी कह पढ़ सुन देख सकता है
जो यथार्थ में कहीं
देखा नहीं गया
रचा नहीं गया.

कवि की अपनी
अलग ही पहचान होती है
अद्वितीय हृदय, सोच, अभिव्यक्ति
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं
समान नहीं होती.

यही सामर्थ्य सिद्ध करता है
एक अद्भुत छवि
और कथन कि
जहां न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि..


Friday, November 25, 2011

जलेबी बाई-जलेबी बाई (तुकबंदी)

(शीर्षक वाला गाना कुछ ज्यादा ही हाल ही में प्रचलित हुआ.....इस पर कविता तो नहीं बन सकती...हाँ, तुकबंदी की जा सकती है.....आशा है आप भी इस स्वाद का आनंद लेंगे.....)

देखकर इस पोस्ट को न हो अचम्भित भाई
यह है आधुनिक सेलिब्रिटी नाम जलेबी बाई
बहुतों अनजान थे इससे अब कुछ पहचान पाई
जब से मल्लिका खाकर इसे स्क्रीन पर आई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

कई मिठाइयां रूखी हुई कई मिठाइयां फीकी
गोल गोल जब यह घूमी नाम कमाकर आई
काम धंधा सब छोड़ तुम भी गोल गोल घुमो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई...

सावन आया वाष्प उठी घनी घटा छाई
गोल ही बदरा बने गोल ही वर्षा आई
छाता छत बरसाती सब छोड़ दो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

फेसबुक ब्लोगिंग से क्या ख़ाक नाम कमाओगे
खुद लिखोगे खुद ही अपना पढ़ते रह जाओगे
कुछ गोल गोल सा मीठा स्वीटा लिखो रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई....

गोल गोल ही दुनिया है गोल गोल ही तू बोल
स्वाद सारी दुनिया का तू बस अपनी जुबान से तोल
छोड़ दे सब खाना पीना नाम एक रट ले रे भाई
फूल माला चढ़ा जप लो नाम जलेबी बाई जलेबी बाई.....

Sunday, October 23, 2011

फेसबुक न होता तो क्या होता

फेसबुक न होता तो क्या होता
मेरी सारी बकवास कौन सुनता
मन की भड़ास कौन झेलता
अच्छी बातें तो सब पसंद करते हैं
पर मेरे बासी शेरों पर वाह वाह कौन करता
फेसबुक न होता तो क्या होता....

अकेले पन में साथ कौन होता
भूख लगी, नींद नहीं, चाय पीनी है
ये फ़ालतू status कोई कैसे डालता 
दुसरे की महिला मित्रों के चित्र like कौन करता 
फेसबुक न होता तो क्या होता....

हीरा तो खुद चमक लेता है मगर
झंडू जैसी सूरतों को gorgeous कौन कहता
सुख में तो सब साथी होते किन्तु
दुःख बांटने वाला साथी कौन होता
फेसबुक न होता तो क्या होता....

नेकी कर फेसबुक में डाल कहावत
चरितार्थ कोई कैसे करता
सिर्फ प्रस्ताव स्वीकृति सिद्धांत पर
दोस्ती के मापदंड कौन तय करता
फेसबुक न होता तो क्या होता......

जिनमे दम और व्यक्तित्व है
वो तो बुक्स में फेस छपवा लेते
पर जो अक्ल से श्री शर्मा की तरह पैदल हैं
बेचारे उनका अपना क्या होता
प्रभु, ये फेसबुक न होता तो क्या होता......:):)



Friday, October 14, 2011

तुम आना मत भूलना


तुम इतनी कठोर 
कब से हो गई हो
कि जाने के बाद
नहीं देखती 
मुडकर भी!

एक तो वो दिन था
कि तुम एक पल के लिए भी
नहीं होना चाहती थी दूर
समय के लिए सचेत करती थी
कि फिर मिलना है
अल सुबह दस बजे.

और बार बार कहना
जल्दी आना-जल्दी आना
और कहना-क्या नया?
कब दावत? कब मिलवा रहे हो?
सुना है आपका कोई,
इंतज़ार करती थी
इसी भवन में!

तुम्हारी दिलचस्प बातों से
तुमसे, तुम्हारी अदाओं से
मैं तो यूँ ही, प्यार कर बैठा था
आँखे मूंदे, बिना सोचे, बिना समझे
और शायद तुम भी करती थी
बहुत हद तक.

पर चंद समय की दूरियों ने ही 
ऐसा क्या फासला बढ़ा दिया कि
अब तो तुम्हारा कोई ख़त, सन्देश
फोन भी नहीं आता,
यहाँ तक कि हिचकी भी नहीं!

तुम्हारे नाम की हिचकी का 
इंतज़ार करते करते 
मैं सुबह से शाम कर देता हूँ
मुझे देखते देखते ऱोज
डूब जाता है सूरज.

फिर चाँद निकल आता है
तो तुम्हे आसमान में ताकता हूँ
कि हो सकता है कहीं
तुम्हारे बदन की चांदनी उसमे समाहित हो
और मुझे नज़र आ जाए.

समय चक्र चलता रहता है
फिर अमावास आ जाती है
तुम न आओ, न सही
जब मेरी ज़िन्दगी की अमावास आए
तुम आना मत भूलना...
 

     

Wednesday, September 14, 2011

राष्ट्रीय एकता


हम दावा करते हैं
ग्लोबल होने का

बड़ी बड़ी बातें करते हैं
देश की विदेश की
विश्वस्तरीय भाषा
सभ्यता और संस्कृति की.

बताते हैं अनेकता में एकता
राष्ट्रीय एकता.

परन्तु यथार्थ में
होने के बावजूद,
इक्कीसवीं सदी के

नाम जताने के पश्चात
अक्सर यही प्रश्न होते हैं
किस जाति के हो?
किस धर्म के हो?
किस राज्य के हो???



Wednesday, August 3, 2011

माँ, तुम

माँ कितना विस्तृत शब्द
अपने आप में एक ब्रह्माण्ड
क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश
इससे बड़े हो सकते हैं ?

तुमने ही किया सृजन
ऊँगली पकड़ चलना सिखाया    
तुतला कर बोलना सिखाया
खाना भी तो तुम ही से सीखा  
उंगलियाँ काट काट कर.

तुम मेरी हर इच्छा को
बिना कहे समझ जाती थी
मेरी हर बुराई का
तुमने ही संहार किया
डांट कर या पीट कर
वो भी तो कितना सुखद था.

मैंने तो तुम में ही
देखा है न
सृजन, पालन और निर्वाण
तो क्यूँ मानू मैं?
अदृश्य ईश्वर को,
जब तुम साक्षात हो.

अब कुछ बदल सा गया है न
तुम मुझे पीटती  भी नहीं हो
डांटती भी कम हो
क्या इसलिए कि?
मैं अब तीन महीने में
घर आता हूँ??

या इसलिए कि
अब सत्ताईस का हो गया हूँ!.
क्या सत्ताईस का होना
इतना बड़ा माना जाता है कि,
तुम मेरा विवाह करके
मेरे बड़े होने का
प्रमाण देना चाहती हो!

फिर तो तुम्हारा डांटना  
और भी कम हो जायेगा ना
फिर क्या फायदा? 
ऐसे नए बंधन का जो
मुझसे मेरा बचपन छीन ले!

ईश्वर से बस एक ही
प्रार्थना करता हूँ
हे ईश्वर, तू जिस रूप में
मेरे समक्ष है
बने रहना
मुझे कभी
बड़ा मत होने देना...

Tuesday, July 26, 2011

हैरत न कर...

हैरत न कर
जो तुझे देखकर
रुख से पर्दा उठे!
हैरत तो तब है,
जो पर्दा उठे 
गैरत के लिए 
और तू समझे 
तेरे लिए...!!! 

Saturday, June 25, 2011

दिल बहलाने के लिए

मैं दिल में जगह बनाता रहा
तेरे जख्म खाने के लिए
तू नादाँ सितम ढाती रही
दिल बहलाने के लिए...

मेहंदी से घरोंदे बनाए थे मैंने
तेरे हाथों को सजाने के लिए
तू बेदर्द शूल चुभोती रही
दिल बहलाने के लिए...

फूलों की जगह पलकें बिछाई थी मैंने
तेरे कदमो की मुझ तक राहों के लिए
तू कुचलती चली गयी
दिल बहलाने के लिए... 

स्याही  की जगह अश्कों से ख़त  लिखता  रहा
मेरे  अहसास  तुझे  जताने के लिए
तू कलम से जवाब चुभोती रही
दिल बहलाने के लिए...

मैं दिल पर पत्थर चुनता रहा
तेरे सपनो का महल बनाने के लिए
तू ढहाती चली गयी
दिल बहलाने के लिए...

Saturday, June 18, 2011

एक अनकहा सा प्यार

(कुछ बातें, कुछ यादें, हम ज़िन्दगी भर नहीं भूल पाते. ऐसे ही मेरी अब तक की सबसे पसंदीदा पोस्ट आप सुधी पाठकों के साथ दुबारा शेयर करना चाहूँगा....) 

Friends, this is the first story, I have ever written. Everything in the story is fictitious though it may seem like some 'aap beeti'....just enjoy this sentimental beautiful story:

सुबह के साढ़े नो बजे मैं हमेशा कि तरह अपने ऑफिस में पंहुचा. घडी अपने निर्धारित समय से दस मिनट ज्यादा दिखा रही थी. मन ही मन लग रहा था आज कुछ हटके होने वाला है. कुछ अजीब सा अहसास मन में लिए मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया था. फिर अपना ईमेल चेक किया.  आज फिर उसी का ईमेल आया था जिसका मुझे पिछले कई महीनो से इंतज़ार था.

आज उसने अपने दिल के सारे उदगार उसमे उतार दिय थे, एक छोटी सी अनकही सी प्रेम कहानी के साथ. ख़त में हमारे डेढ़ महीने के साथ की यादें साफ झलक रही थी जब उसने और मैंने एक ही ऑफिस में काम किया था. कुछ हसीं ठिठोलियाँ हो जाया करती थी, चंद चुटकुले और कुछ मस्ती भरे शेर. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं था. पर आज का उसका ख़त अपने आप में बहुत कुछ कह रहा था और एक अनकहा सा प्यार अपने आप में समेटे हुआ था.

लिखा था:-"क्या कोई किसी से सिर्फ डेढ़ महीने के साथ में ही इतना प्यार कर सकता है? क्या तुमने मुझे ठीक से पहचान लिया था? और तुमने इतने से दिनों में ही मेरे बारे में इतना बड़ा क्यों सोच लिया था? मैं तो तुम्हारे लिए सिर्फ अजनाबी थी न! फिर हमारा तो मज़हब भी अलग था! हम पहले कभी मिले भी तो नहीं थे! ना कभी साथ पढ़े, न खेले, न देखा!

फिर तुम मुझे देखकर इतना कयूँ  मुस्कुराते थे? बात बात पर मुझे हसाने कि कोशिश क्यों करते थे? मुझे हँसते देख तुम्हे बहुत अच्छा लगता था न!. फिर मुझे छोड़कर मुंबई क्यूँ चले गए थे? क्या तुम्हारे लिए नौकरी मुझसे भी ज्यादा जरुरुई थी? मैं तुमसे ऐसा तो नहीं चाहा था! चलो मान लेती हूं तुम्हारी भी कोई मजबूरी रही होगी! पर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि मुझसे मिलना तो दूर एक फ़ोन तक नहीं किया. क्या कभी  सोचा मैंने तुम्हारे बिना कैसे खुद को समझाया? तुम्हारी याद को छुपाने के लिए मैंने  अपनी सहेलियों से एक्साम कि टेंशन के बहाने बनाये . तुम्हारी तस्वीर को हमेशा दिल में छुपाये रखा ताकि मेरी भीगी आँखों में झांककर कोई पहचान ना ले कि इनमें कही ना कही तुम्हारी सूरत और इंतज़ार छिपा है.

फिर तुम्हारा २५ मार्च २००८ का वह ईमेल जिसमे तुमने मोहब्बत को जाहिर करने कि अल्ल्हड़ खता की थी. उसमे तुम्हारी पंक्तियाँ -"भोली सी इन आँखों ने फिर इश्क  कि जिद कि है, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है". उसमे लिखा तुम्हारा एक एक शब्द मेरी धड़कने बढ़ा रहा था. साँसे असंतुलित सी हो रही थी. हाथ पैर कांपने लगे थे. दिमाग काम करने कि हालत में नहीं रहा था. तुम्हारा वह ख़त मुझे सदमा सा पहुचने वाला था. क्युकी मुझे तुम्हारे सीधेपन को देखते हुए इसकी कभी उम्मीद नहीं थी. माना कि दिल के किसी कोने में मैंने तुम्हे बसा के रखा था. और ऐसे ही तुम्हारे इज़हार भरे किसी ख़त का मुझे इंतज़ार था. तुम्हारा वह ख़त पाकर मुझे लगा था शायद मेरा सोमवार का व्रत सफल हो गया है. और कुछ देर बाद मैंने सोच लिया था तुम्हे ख़त लिखकर तुम्हारे प्यार को स्वीकार करलूं और मेरे नाम के पीछे से 'जी' से शब्द हटाने का अधिकार तुम्हे दे दू. मैंने तुम्हे अंगीकार करने का फैसला कर लिया था. और तुम्हे अपना जवाब देने ही वाली थी.

फिर अगले ही पल तुम्हारा दूसरा ईमेल मिला जिसमें तुमने लिखा था कि जो तुमने अब तक कहा वो मज़ाक था. तुम मुझे चिरकुट बना रहे थे. वह सब अप्रैल फूल बनानके के लिए किया था. तुम्हारे उस दुसरे ख़त ने मुझे और भी गहरा सदमा दिया. मैं उस दिन पूरी तरह बिखर चुकी थी. मेरा रोम रोम पीड़ा कि आग में जल रहा था.मेरे चेहरे पर आई अचानक पसीने कि बुँदे बहुत कुछ बयान कर रही थी. फिर बार बार के तुम्हारे तर्क वितर्क से मैं हार चुकी थी. मैंने मान लिया था कि वो तुम्हारा एक मज़ाक ही था और अब वो ख़तम हो चूका है. मैं अपने अर्मानो  का गला घोंट चुकी थी. बार बार खुद को कोस रही थी कि पांच लम्हों पहले अगर तुम्हे जवाब दे देती तो शायद इस तरह बिखरने से बच जाती. तुम्हारे उस ख़त को मैं मीठा ज़हर समझकर पी गई थी. और उसके बाद आज जब डेढ़ साल गुज़र चूका है तुम्हे भुलाने में काफी हद तक सफल रही हूं.

आज फिर तुम्हारा ईमेल मिला. तुमने लिखा है:-"मैंने कब कहा कि तू मिल ही जा मुझे पर गैर ना हो मुझसे तू बस इतनी हसरत है तो है". और कि तुम्हारा वो ख़त मज़ाक नहीं प्यार का इजहार ही था. आज फिर मुझे सोचने पर मजबूर किया. लेकिन इसने मुझे उतना गहरा सदमा नहीं दिया. तुम्हारे जख्म खा खाकर मैं अब कठोर हो चुकी थी. आज के तुम्हारे ख़त का मेरे पास सपष्ट जवाब था. अब तुम मेरे लिए एक अबूझ पहेली बन चुके हो. मैंने तुम्हारा डेढ़ साल तक इंतज़ार किया. परन्तु तुमने वफ़ा नहीं कि और मैं बावफा होकर भी बेवफा बन गई. अब तुम मेरे लिए एक गैर हो, मैं किसी और कि होने वाली हूं. मेरी अब से तीन दिन बाद अपने ही पुराने किसी क्लास मेट से शादी होने वाली है. शायद तुमने वो मज़ाक नहीं बनाया होता तो आज भी मुझ पर सिर्फ तुम्हारा हक़ था. मगर अब बहुत देर हो चुकी है. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना".

अब उसका ख़त ख़त्म हो चूका था और मुझे भी अपना जवाब मिल गया था. मेरी अपनी खाई हुई चोटें गहरी होती जा रही थीं. मेरी भावनाएं ताश के पत्तों कि तरह बिखर चुकी थीं. मैं ऑफिस से बाहर निकलकर आसमान में झाँकने लगा था. लग रहा था मानो पक्षी उड़ना भूल चुके हैं. हवा थम सी गई है. आसमान सिकुड़ चूका है. पेढ़ रूखे हो चुके हैं. चारो तरफ शान्ति छाई हुई है और एक वीरान दुनियां में मैं सिर्फ अकेला खड़ा हूं. लग रहा है जैसे सूरज हमेशा के लिए डूब चूका है. मेरा साया ही मुझसे कह रहा था.."अब कुछ नहीं साथ मेरे बस हैं खताएं मेरी". और मुंह से सिसकियों के साथ महज़ कुछ लफ्ज़ निकले जा रहे थे.."क्या तुम इतनी भी नादाँ थी कि न समझ सकीं ऐसा मज़ाक भी कोई करता है भला???

Thursday, June 16, 2011

तेरी बेवफाई, दो आंसू, सुरमा, टुकड़े

१.तेरी बेवफाई

तेरी बेवफाई
भिगो देती है रोज़
दिल को आंसुओं से
अच्छा है, हर दिन
धड़कने को मिल जाता है 
एक नया दिल!!!
  

२. दो आंसू

गैरों को भी अपना
समझ लेते हैं
गर कोई बहा दे
दो आंसू
झूंठे ही सही!!!

३. सुरमा

सुबह से सूरज
कहीं नज़र नहीं आया
तुमने आँखों में
सुरमा लगा लिया था क्या..!!!

४. टुकड़े

आज फिर तकरार हुई
कुछ टुकड़े तुमने किये
कुछ मैंने
खुदा दिल शीशे का क्यूँ बनाता है..!!           
    

Saturday, June 11, 2011

प्रकृति से एक प्रश्न...

हे प्रकृति!
कौन हो तुम?
क्या कभी दिया किसी को
अपना परिचय?

क्या तुम्हारा कोई भौतिक अस्तित्व है,   
चाँद, तारों, वनस्पति, आकाश में कहीं?
या मात्र एक कल्पना हो?
या हो महज़, बिग बेंग थ्योरी का एक विस्फोट?

क्या तुम्हारा प्रारब्ध उससे पहले भी था?
यदि था, तो किस प्रारूप में?
अगर नहीं, तो तुम जनित हो
जनित हो तो अमर नहीं हो सकती.

किसने किया था तुम्हारा सृजन?
ब्रह्मा, विष्णु या महेश?
या तुमने ही रचा था उन्हें?
यह भी अनुत्तरित है.

तुम ही निर्माण करती हो निर्वाण  भी  
अगर निर्माण तुम्हारा है 
तो फिर  निर्वाण की आवश्यकता क्यूँ ?
तुम तो अपना आकार बढ़ा सकती हो न!

बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी, ग्रहण 
यह सब तो तुम्हारे लिय खेल होंगे
अगर नहीं तो फिर
ये विनाश लीला क्यूँ?

या अमूर्त में जानू तो
क्या तुम ह्रदय में बसने वाली प्रीत हो?
या हो आत्मा का परमात्मा से मिलन?
यदि हाँ, तो जन्म मृत्यु क्यूँ?

हे प्रकृति!
मैं बहुत ही सूक्ष्म और क्षण भंगुर जीव हूँ
तुम्हारे बारे में नहीं लगा सकता
कोई भी अनुमान
प्रयास भी करूँगा तो रहूँगा नाकाम.

तेरी ही रचना होकर
तुझ ही से प्रश्न करता हूँ  
कृपा करके  दे दो मुझे
अपना परिचय
और निश्चय ही
मेरा भी!!!

Friday, June 3, 2011

मगर अफ़सोस

मैं तो बस यूँ ही
दिल को बहलाने के लिए
दर्द के टुकड़ों को
संजो संजोकर
कविता चुन लेता हूँ
मगर अफ़सोस
लोग उसमे भी मज़ा लेते हैं...!!!

Saturday, May 28, 2011

उसका क्या दोष था????

(तस्वीरों के लिए गूगल का आभार)

सावन का महीना अपने पूर्ण यौवन पे था. चहुँ दिशाओं में बस उसी का वर्चस्व. कहीं बादलों की गडगडाहट कहीं बिजली की कड़कडाहत . कहीं रिमझिम टपकती कहीं झमाझम इतराती बारिश की बूंदें. समंदर भी उमड़ उमड़ कर अंगडाइयां लेता हुआ. उसकी कोई एक अंगडाई बदली बनकर निकली, अपने अन्दर विशाल जल समाये हुए. बदली उडती रहे अपने गंतव्य की तरफ यह जाने बिना की आखिर उसकी मंजिल कहाँ है...बादलो के मेले से गुजरते गुजरते उसने एक छोटी बदली को जन्म दिया. दोनों साथ साथ उडती रहीं. छोटी बदली जो यह सब परिदृश्य पहली बार देख रही थी, अचंभित थी. उसे उड़ने में बड़ा मज़ा आ रहा था. कभी किसी छोटे बदल से टकरा लेती, कभी बड़ी बदली का हाथ पकड़कर लटक लेती. कभी दुसरे बादलों पर चढ़कर गुजरती कभी घने बादलों के रंग में रंगने का उसका भी मन करता. एक दिन बड़ी बदली से उसने खुद भी बरसने की इच्छा जाहिर की.
बड़ी बदली ने थोडा सा पानी अपने अन्दर से खुश करने के लिए दे दिया. अब छोटी बदली थोडा सा जल खुद में सहेजे हुए खुश... अब तो मानो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही ना रहा.. वो उडती चली जाती. कभी सरसर हवाएं उसे गुदगुदाती, कभी दूसरी छोटी बदलियों के सात आँख मिचौली खेलती. बादलों के बड़े समूह में एक छोटी सी बदली होने के कारण उसे सबका प्यार मिल रहा था. बादलों की टक्कर और कडकती बिजलियाँ देखकर उसे अभूतपूर्व रोमांच का अनुभव हो रहा था. खुली हवा में तेरते तेरते उसका भी बरसने का बहुत मन करने लगा. बरसने की इच्छा के कारण उसका पूरा शरीर श्यामवर्णीय  होकर वर्षामय हो गया. परन्तु वह भ्रम में थी की आखिर कहा बरसा जाए?? वह अपनी पहली बरसात व्यर्थ न जाने देना चाहती थी. उसने बड़ी बदली से कहा की मैं कहा बरसूँ, जहां मेरे बरसने का कोई मूल्य हो. कोई  ऐसी जगह बताओ जहां पानी बरसाकर मुझे आनंद आये और वहा के बाशिंदों को मेरे साथ झूमने का हर्ष हो. मुझे इसी जगह बताओ जहां काफी समय से बरसात नहीं हुई हो.

बड़ी बदली उसके प्रश्नों और विचारों से अचंभित थी. आखिर उसने तो कभी इतना बड़ा सोचा नहीं था. बोली-कहीं भी बरसले जहां तुझे अच्छा लगे पर ज़रा आना ख्याल रखना. फिर भी अगर चाहे तो राजस्थान में तुझे मूल्यवान समझा जाएगा. वहाँ थार के रेगिस्तान में तो काफी बरसों से बरसात नहीं हुई. वैसे तो पूरा भारत ही आज पानी की समस्या से जूझ रहा है.

अब छोटी बदली ने निर्णय लिया की इस बार थार के रेगिस्तान में ही बरसना है. वहा भी खुशहाली लानी है. बड़ी बदली ने समझाया की नहीं, रेगिस्तान की राह आसान नहीं है. तुझसे पहले भी कई बदलियों ने चाहा था लेकिन किसी का भी साहस नहीं हुआ.. परन्तु छोटी बदली ज़रा जिद्दी स्वभाव की थी. उसने तो बस मन मर्ज़ी से उड़ना शुरू कर दिया. बड़ी बदली भी उसके पीछे पीछे चल दी. बस अब रेगिस्तान की ओर यात्रा...आसमान साफ़...दोनों खुले खुले से तैरती थार के पास पहुँचने वाली थी. छोटी बदली के चेहरे पर थकान के बावजूद कोई शिकन तक न थी. वो तो बस अपना बासंती नृत्य कर लेना चाहती थी.

थार का रेगिस्तान थका, हारा , टूटा हुआ सा, उपेक्षा का शिकार, अपने भाग्य को कोसता हुआ बस आँखे  मूंदे  कराह रहा था. बरसों की प्यास से सूख चुका उसका गला बस दो शब्द कह  पा रहा था.....पानी!!...पानी...!! पानी...!! उसे और कोई होश नहीं.

बदलियों के उसके करीब पहुँचने पर  सूरज की धूप को चीरती हुई उनकी छाया थार की आँखों पर कुछ क्षणों के लिए पड़ी. उसकी पलकें तुरंत खुली और देखकर उसे अपार आश्चर्य हुआ  की दो दो बदलियाँ..! और आज रेगिस्तान में...!!! और वो भी पानी के साथ...! कहीं ये सपना तो नहीं...? मैं होश में तो हूँ?? अपने आपसे प्रश्न करता रहा. लेकिन बदलियों की चहल कदमी और धूप छावं का खेल देख उसे काफी आनंद का अनुभव हुआ और जागते स्वप्न देखने लगा....अहा..!!! कितना सुखद क्षण होगा जब ये बदलियाँ मुझ पर झूम झूम कर बरसेंगी. मेरी बरसों की प्यास बुझ जाएगी.... मैं काफी सारा पानी खुद में सहेज कर रख लूँगा. ...अब मुझ पर भी हरियाली होगी.... कोई मेरी उपेक्षा नहीं करेगा.... वो सपनो के महल चुने जा रहा था...

छोटी बदली बड़ी उत्सुकता से वहाँ  पहुची. लेकिन तपती धूप और रेगिस्तान की गर्मी से उसे काफी असहज महसूस होने लगा... गरम बालू  की उडती धूल उसकी आँखें खुजाने लगीं. .उसका शरीर धीरे धीरे जलने लगा...वो तड़पने लगी....इधर उधर दौड़ी की कहीं कोई पेड़ मिल जाए... लेकिन दूर दूर तक कोई पेड़  का नामो निशाँ तक नहीं....बस मतिभ्रम पैदा करती बालू रेत के जर्रों ने अपने महल बना रखे थे....यहाँ से वापस लौटना भी अब उसके लिए नामुमकिन था....बस वह छटपटा रही थी..... कराहों के साथ साथ उसका पानी भी सूखता गया. ...बड़ी बदली व्याकुल हो उठी....उसे बचाने के लिए अपना पानी देती रही....लेकिन इतनी सूखी तेज आग जैसी गर्मी को सहना छोटी बदली के लिए अब संभव नहीं था. कुछ ही क्षणों में उसने दम तोड़ दिया.... बड़ी बदली के पास भी अब सूखे आंसू बहाने के सिवा कुछ नहीं था..... रेगिस्तान का ऐसी विडंबना पर वापस टूटकर मुरझाया हुआ चेहरा देखकर लौटते हुए बस सिर्फ कुछ शब्द कह पाई- "जहाँ कोई पेड़ ही न हो, कोई चाहकर भी क्यूँ बरस पाएगा भला"???? रेगिस्तान बोला-"इसमें मेरा क्या दोष था"??? बदली बोली-"इसमें उसका भी क्या दोष था"....???

Thursday, May 26, 2011

हर खता-हर इलज़ाम

हर खता मेरी
हर इलज़ाम मुझ पर
जो की थी जुर्रत 
मोहब्बत करने की,
अंजाम तो ये
होना ही था...!!!

Saturday, May 14, 2011

सब खोया तो

मैं तो तुझ पर
रग रग से प्यार लुटा चुका था
सब खोया तो मालूम हुआ
तेरे सीने में
दिल ही नहीं था!!!  

Friday, April 29, 2011

सुख की तलाश में

(अगर नजरिया नकारात्मक हो जाये, तो ज़िन्दगी कुछ यूँ दिखाई देती है....)

सुख की तलाश में


काटते गुजारते दिन
बरस छब्बीस गुजर गए
धीरे धीरे रिटायर हो जायेंगे
पहले नौकरी से
फिर ज़िन्दगी से.

बचपन में पढने का दुःख था
अब नौकरी का दुःख है
दफ्तर में बॉस का दुःख है
घर में बीवी का दुःख है
दोस्तों में बीमा करने वालो का दुःख है
बाहर निकलो तो दुकानदारों का दुःख है.

सोता हूँ तो नींद नहीं आती
चादर हटाता हूँ तो मछर काटते हैं
ओढ़ता हूँ तो गर्मी लगती है
स्विच दबाता हूँ, बिजली चली जाती है.

भूख लगती है तो मेस बंद मिलती है
खाना अच्छा बना हो तो भूख नहीं लती
जो मुझे पसंद करे उससे मुझे प्यार नहीं
जिससे मुझे प्यार है मुझे नहीं करती.

अपने दुखों का राग अलापता हूँ
सब कान बंद कर लेते हैं
इन्तहां तो अब हो गई है पागलपन की
कि सुख को गूगल में सर्च करता हूँ.

लिंक तो कई मिल जाते हैं सुख के
पर खुलता कोई नहीं है
किसी ने सही कहा था,
ज़िन्दगी गुलाबों की शैया नहीं
दुनिया दुखों का सागर है...!!!

Wednesday, April 20, 2011

हाय रे भ्रष्टाचार! हाय रे हाय! (गुस्ताखी माफ़)

हाय! हाय! ये कोई ताली बजाके बोलने वालो का हाय हाय नहीं है. ये हाय, हाय उस अचम्भे पर है जिसके चलते एक साथ लाखों लोग एक ही दिन में ईमानदार हो गए. ईमानदार हो गए या इमानदारी का दौरा पड़ा, ये बात तो वो ही जानते हैं, हम किस खेत की गाजर मूली हैं  की  ये बताएं. किसी ने कसर नहीं छोड़ी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाने में, चाहे साधू सन्यासी हो या नेता या परनेता या फिर कोई आम और इमली आदमी. हालांकि इस मुहिम में प्रदर्शन करने वालो में कुछ तो ऐसे आम भी थे जो बस कंडक्टर को दो रुपये कम देकर आये थे या रेलवे की जनरल बोगी का टिकट लेकर स्लीपर में यात्रा कर लौटे थे. कुछ बिजली चोरी करने वाले थे तो कुछ बिजली का बिल न चुकाने वाले. कुछ ऐसे भी जिन्होंने बिल तो छ महीनो से नहीं भरा, कनेक्शन कटा तो पैत्रक सड़क में पानी चोरी के लिए गड्ढा कर दिया. चंद मुखड़े ऐसे भी जो वापस न देने की नीयत से आपका या मेरा पेन उधार मांग लेते हैं. भाव पूछने के बहाने टमाटर जेब में डाल लाने वालो की भी कमी न थी. कहने का अभिप्राय है की सभी प्रकार के आम और इमली आदमियों ने भ्रष्टाचार पर कौड़े बरसाए पर उन्होंने यह नहीं स्पष्ट किया की वे किसके भ्रष्टाचार के विरूद्ध बोल रहे हैं-अपने या किसी और के? या फिर सिर्फ नेताओं के पीछे पड़ गए. वैसे जहां तक सामान्य ज्ञान का विषय है जिसको जितना मौका मिलता है, उतनी ही भ्रष्ट होने की 'स्थापित क्षमता' उसमे है, निर्भर करता है उस पर की कितना दोहन कर पाता है. शायद इसीलिए दोष झट से नेताओं पर मढ़ दिया जाता है या फिर कुछेक सरकारी महकमो पर.

प्रश्न यह है की क्या आम आदमी भ्रष्ट नहीं है??? क्या वह संविधान के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों को निभा रहा है??? क्या कभी अपना भोजन छोड़कर भूखे को खिलाया है? क्या हर स्त्री को माता या बहन की दृष्टि से देखता है? क्या कभी किराने की दूकान से गलती से ज्यादा मिला सामान वापस लौटाया है? क्या ऑटो या रिक्शे वाले को बिना लड़े-झगड़े पूरे पैसे दिए हैं? क्या अपने घरेलू सेवक को कभी पूरी पगार खुश होकर दी है???

अगर इनमे से किसी भी प्रश्न का जवाब 'ना' में है तो प्रथम-दृष्टया आम आदमी अपने खुद के प्रति भी ईमानदार नहीं है. तो फिर सिर्फ नेताओं या अफसरों को ही दोष क्यूँ?? यद्यपि उनमे से कोई भ्रष्ट गतिविधयों में लिप्त पाया जाता है तो उसके लिए तो सीबीआई, सी वी सी, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी बड़ी व्यवस्थाएं है ही भारत में. भारतीय संविधान द्वारा तंत्र को विकसित करने के लिए व्यापक इंतज़ाम किये गए हैं ताकि एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके. आवश्यकता है तो बस इन्हें समझने की, अपने कर्तव्यों को मानने और निभाने की.

कहने के पीछे मूल भावना सिर्फ इतनी सी है की भ्रष्टाचार नामक व्याधि आज हमारे देश में काफी हद तक अपनी जड़ें पसार चुकी हैं. समय की मांग इस बात की है की भारत का हर नागरिक अपना उत्तर दायित्व समझे. दूसरों को ईमानदार बनाकर खुद बेईमान रहने की अभिलाषा के बजाये वह खुद को ईमानदार बनाये. सच्चा सोचे, अच्छा सोचे, सकारात्मक विचार अपनाएं. राष्ट्र के लिए रचनात्मक कार्य करे. दूसरों की निंदा करने के स्थान पर खुद निष्ठापूर्वक ईमानदारी से कार्य कर उदाहरण पेश करें. आप, हम, इस देश की आम जनता, राष्ट्र का मेरुदंड हैं. अगर आप और हम सुधर गए तो पूरा राष्ट्र सुधर जाएगा, तभी होगा एक नए भारत का निर्माण. तभी बनेगा, एक नया भारत, इक्कीसवीं सदी का ईमानदार और विकसित भारत. अन्यथा हाथ पर हाथ धरे घर बैठिए और गुनगुनाते रहिए, अमिया से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए.............

Saturday, April 16, 2011

शर्तिया प्रेम

प्रेमिका कहती है
मेरे लिए आसमान के तारे तोड़ ला सकते हो?
मुझे चाँद की सैर करा सकते हो?
अगर नहीं तो,
तुम मेरे लायक नहीं हो.

जब हो जाओ तब आना
चाहे तुम्हे पुनर्जन्म ही क्यों न लेना पड़े

प्रेमी बेचारा सदा की तरह
प्रेमिका के कठोर मापदंडों की
पूर्ति के लिए
मृत्यु का इंतज़ार करता है.

वह पुनः जन्म लेता है
चाँद तारे लाकर 
प्रेमिका की झोली में डाल देता है
घुटना टेके प्रीत का प्रस्ताव करता है
प्रत्युत्तर में प्रेमिका तैयार रहती है
पुनः नयी शर्तों के साथ.....!!!      

Wednesday, April 6, 2011

ऐ अजनबी!

ऐ अजनबी!
एक दिन तू अजनबी थी
कल न रही
आज फिर है.

अभी-अभी
तेरी झलक देखी थी
पल भर के लिए
छलक आई थीं, 
मेरी आँखे
कि आखिर तूने
याद तो रखा.

कुछ लफ्ज़
तेरे लबों से बिखरे 
मैंने उन्हें सहेजा,
अपनी रगों में
बदले में लुटा दी तुझे
दिल की धड़कने.

पर, इससे पहले कि
मैं तुझे 
जी भर के देख पाता
हो गई तू फिर ओझल
मजबूरियों का नाम देकर.

अब बस सूना आसमान है
हवाओं में खुशबू  वीरान है
मेरे शहर की गलियां सुनसान है
आखिर किन मजबूरियों ने तुझे बाँधा है
कि मेरा साया होकर भी तू अनजान है.

आओ!
आज अमावास क़ी रात है
तुम चाहो तो 
सारी मजबूरियां मिट सकती हैं
हर बंधन टूट सकते हैं
बस, 
इतने करीब आ जाओ कि
कल सूरज उगे तो
आज की रात के बाद हम 
अजनबी न रहें...!!!         
             

Friday, March 18, 2011

रंगमंच

जीवन क्या है?
सोचता हूँ मैं
पूछता हूँ मैं
अपने आप से
ढूँढता हूँ किताबों में
मगर, नहीं मिलता कहीं
उत्तर
जो दे सके संतोष.

कोई बताता है जीवन को
बिना लगाम का पहिया
कोई पगडण्डी, कोई मझधार
और कोई बताता है, सिर्फ
चलने का नाम है जीवन.

पर मैं जब झांकता हूँ
अपने ही गिरेबाँ में
तो पाता हूँ
जीवन एक रंगमंच है
इसमें निभाता हूँ मैं
कई भूमिकाएं
दफ्तर में अलग
घर में अलग
समाज में अलग
और सपनो में भी अलग.

करता हूँ झूंठी तारीफ़ दूसरों की
झूंठी ही निंदा स्वयं की
ठहाका लगाकर हँसता हूँ
दूसरों के दुःख में
खुद के क्षणिक सुख में.

मेरा कोई साथी धावक जिसने
दौड़ना शुरू किया था मेरे साथ
अगर निकल जाताहै मुझसे आगे
तो मन ही मन नाखुश होता हूँ
पर जुबां पर शब्द लाता हूँ....वाह!

दफ्तर में भी खैलता हूँ मैं
कई भूमिकाएं
काम का नाटक करता हूँ
जूनियर्स पर चिल्लाता हूँ
सीनियर्स की हाँ में हाँ मिलाता हूँ
दूसरों के काम का श्रेय खुद ले लेता हूँ
अपनी गलती दूसरों पर थोप देता हूँ.

झूंठा हंसता हूँ
झूंठा ही डांटता  हूँ
झूंठा ही प्यार दिखाता हूँ
श्वेत वस्त्र पहन
झूंठी शालीनता दर्शाता हूँ.

कहीं नहीं दिखता मेरा असली चेहरा
उसे मैं वक्त और स्थिति के मुखौटे से ढँक लेता हूँ
मेरी इच्छाएं अनंत हैं,
मेरा अपनी वस्तुओं से नहीं भरता जी
दूसरों की भी हड़प लेना चाहता हूँ.

नहीं चाहते हुए भी करना पड़ता है यह सब
शायद संसार भी यही चाहता है
इसीलिये मैं नहीं मानता खुद को अपराधी
दोष दूसरों पर मढ़ने का हो चुका हूँ आदी.

अगर ऐसे झूंठ, छलावों और आडम्बरों
का ही नाम जीवन है
तो इससे तो भला,
कोई रंगमंच..!!!

Friday, February 11, 2011

पहली नज़र में


पहली नज़र में
तेरे ही लब
मुझ पर मुस्कुराये थे
बदले में गर मैंने,
तेरे लबों का
साथ दे दिया
और अब जब
रोज़ तेरे होठों से
शबनम पीने की
आदत सी हो गई है
तो लोग मुझे
शराबी क्यूँ कहने लगे हैं...!!!

Tuesday, February 8, 2011

कुछ खट्टी- कुछ मीठी


1. ईमानदारी

कल एक अधिकारी का साक्षात्कार देखा था
दिखने में बड़ा सज्जन, सुशील लगता था
बड़ी सी कुर्सी के सामने केलेंडर टंगा था
'ईमानदारी ही श्रेष्ठ नीति है' लिखा था
अगले दिन अखबार में पढ़ा गया,
अधिकारी घूंस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया..!

2. डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़


बेटा: मम्मी wwf देखना है, चैनल लग नहीं रहा है.....
मम्मी: "कोई बात नहीं बेटे
दूरदर्शन लगा ले
ग्यारह बजे से पार्लिआमेंट सेशन है
वो क्या किसी wwf (white wearing fighters ) से कम है"!!!


3. वेजिटेरियन

एक्स : तुम क्या हो?
वाई: वेजिटेरियन..और तुम?
एक्स: वेजिटेरियन...चलो तुम ऑर्डर करो....
वाई (वेटर से): भैया दो प्लेट वेज ऑमलेट देना......


4. जन्म दिवस

पहले साल जन्म+दिवस आता है
फिर हर साल जन्मदिवस आता है
सभी शुभचिंतकों को दावत पर बुलाया जाता है
उम्र बराबर बत्तियों को जला लिया जाता है
फिर खुद ही उसे बुझा दिया जाता है
ज़िन्दगी का एक साल कम हो जाता है
फिर भी जश्न मना लिया जाता है..!!!

Friday, February 4, 2011

नाचती बोतल, ऐ साकी, नशा, महखाना

१. नाचती बोतल

कल एक
शराब की बोतल को
नाचते हुए देखा था
नहीं पता
उसने पी थी कि नहीं
मगर उस पर चढ़ी दीवानगी
जता रही थी कि
जरुर पिया होगा उसने
कोई गम का घूँट....!!!


२. ऐ साकी

ऐ साकी,
तू सभी को
पिला पिलाकर शराब
अब बूढी हो चली है
गर तुझे फिर जवान होना है
तो आ
बैठ मेरे साथ
लबों से लब मिलाकर
दर्द पी.....!!!


३. नशा

तेरे आर्द्र होंठ
होठों पर मुस्कराहट की शबनम
शबनम पर चढ़ी शराब
इस नशे में भला
कौन नहीं डूबना चाहेगा...!!!

४. महखाना

कल महखाने में
भीड़ बहुत थी
वो भी आये थे
जिन्हें नहीं पीने का शौक
नशा खुद बेहोश था
पूरा मदिरालय मदहोश था
पर मैं पी रहा था
साकी के हाथों से छीनकर
अश्क,
शराब की जगह...!!!

Sunday, January 30, 2011

बिल्ली चली हज़ पे...

(इस बार कुछ बच्चों के अंदाज़ में सोचने का प्रयास करते हैं....पेश है एक बहुत छोटी सी कहानी, जो आधारित है एक बहुत पुरानी कहावत पर-'सो चूहे खाकर बिल्ली हज पे चली').........

दिवाली की शाम. बिल्ली भूखी प्यासी एक पेड़ के नीचे कोने में बैठी थी. बैठी बैठी बड़ बड़ा रही थी - ये इंसान भी कितने बुरे होते हैं! खुद तो मीठे मीठे व्यंजन खा रहे हैं और हमें पूछते भी नहीं... कमबख्त सुबह से एक चूहा भी नहीं मिला. खाना तो दूर, नाश्ता तक नहीं हुआ आज.

उसने शरीफ जैसा मुह बनाकर एक सीधे साधे चूहे को अपने पास बुलाया. प्यार से उसके सर को सहलाते हुए बोली-और!!! चूहे भैया, कैसे हो???

ठीक हूं.., चूहे ने जवाब दिया.

पर तुम कैसी हो मौसी? उसने पूछा.

ठीक हूं भैया........(सांस छोड़ते हुए बिल्ली बोली). पर अब तुमसे क्या छुपाऊं.....!! ये तुम्हारी मौसी पाप कर कर के बहुत थक गई है. चूहे मारकर अब और पाप की भागी नहीं बनना चाहती. सोच रही हूं हज की यात्रा कर आऊं तो सारे पाप धुल जायेंगे. फिर बस शाकाहारी भोजन ही करुँगी. बस एक छोटी सी समस्या है.....(कहते हुए बिली ने धीरे से चिंता की मुद्रा में मुंह लटका लिया).

बोलो मौसी!! हम हैं ना, तुम्हे चिंता करने की क्या जरुरत है??? (चूहा मन ही मन मुस्कुराते हुए बोला).

अरे भैया....... मेरी सारी जमा पूँजी अभी पिछले दिनों ही चोरी हो गई, जाऊं तो कैसे जाऊं??????

तो चिंता क्यों करती हो मौसी???? बस दो दिन दो, हम सब इन्तज़ाम कर देंगे....

ठीक है भैया, चल अब जा, आराम कर....वरना मुझ बुढ़िया के पास तेरा मन भी नहीं लगेगा....

चूहा ख़ुशी से उछलता, उचकता, फुदकता हुआ भागता है....अरे मोटे वाले...!  अरे पतले वाले...! अरे लम्बी पूँछ वाले...! अरे खाऊ...! सब के सब कहाँ हो?? एक मस्त खबर लेकर आया हूं यार.... सारे के सारे चूहे इकट्ठे हो गए. शोर मचाने लगे.....क्या हुआ??? क्या हुआ????

अरे तुम्हे पता है???? बिल्ली मौसी हज पे जा रही है. अब हम सब मस्त रहेंगे और रोज़ खुले आम डांस करेंगे....हमें खाने का खतरा भी ख़त्म हो जाएगा. सारे चूहे ख़ुशी से झूम उठते हैं.....ईई यीईईईए य़ायायाया!!!!!........पर यार बेचारी के साथ एक समस्या है..उसका पर्स अभी चोरी हो गया. उसके पास रुपये नहीं बचे.

क्यों ना हम सब मिलकर चन्दा इकठ्ठा करके बिल्ली मौसी को दे दें, लम्बी पूछ वाले ने सुझाव दिया.

सभी चूहों ने पूँछ हिलाकर बात से सहमति जताई. साथ में यह भी निश्चय हुआ की मौसी की विदाई डांस और गीतों के साथ की जाए.

कुल मिलाकर आठ आने का चन्दा इकठ्ठा हुआ, मौसी को दे दिया गया... उसकी विदाई की भी तैयारी की गई. बिल्ली को सभी चूहों ने मिलकर हमाम साबुन से नहलाया. उसे माला पहनाई गई. मूंछो पर इत्र लगाया गया और गले में एक सुन्दर सा मफलर टांग दिया गया. बिल्ली के जाने की तैयारी हो गई... धीरे धीरे बिल्ली ने चलना शुरू किया....सारे चूहे नाचने गाने लगे. मोटा चूहा गाने लगा....ना जा.....!! तू कहीं अब ना जा....!!! आशिकाना चूहा बिल्ली की नाक पर बैठकर फुदकने लगा....बिल्लो रानी....!! कहो तो अभी जान दे दूं........!!! कोई कर रहा था बल्ले बल्ले और कोइ धिन्चक धिन्चक धिन. ... चूहों का भांग का नशा लगभग चढ़ चुका था और मदमस्त होकर नाच रहे थे.....बिल्ली का दस कदम चलते ही मन बदल गया और एक एक करके सारे चूहों को मारकर खा गयी. सिर्फ दो चूहे जिंदा बचे जिन्होंने नशा नहीं किया था...बस दोनों आपस में यही चर्चा कर रहे थे.......देखलो भैया नतीजा...!!! बुरे आदमी की बात पर आँख बंद करके भरोसा नहीं करना चाहिए.......!!!!




Sunday, January 9, 2011

अक्ल, शिकवा, दौड़, धर्म की किताबें, रातें, शरारत

1. अक्ल

थोड़ी सी अक्ल का बोझ
मैं ढोता रहा
अक्ल डालती रही पर्दा
मेरी आँखों के आगे,
किसी के दिल में झाँकने के लिए
मुझे चश्मा लगाना पड़ता है
अब और नहीं सहा जाता
खुदा,
तू अपनी अक्ल वापस ले ले...!!!

2. शिकवा

गैरों की खताओं का क्या कोई शिकवा करते,
हमें तो अपनों के हाथों क़त्ल होना था...!!!

3 . दौड़

मैं गुलदस्ते की जगह
टिकट लेकर दौड़ा
तब तक ट्रेन होर्न बजा चुकी थी
मैं कुछ स्थान पा पाता
उससे पहले ही
पिछड़ गई थी
मेरी दौड़...!!!


4 . रातें 


तेरी बाहों में 
रहते रहते
यूँ ही गुज़र गईं कई रातें 
आज डर लगने लगा है
कहीं सूरज
कल फिर से ना उग आये...!!! 
 

5 . शरारत 


जानता हूं 
तू शरारत नहीं करती
पर यदा कदा
तेरा हया से पलकें झुका लेना
अमावस  ला देता है...!!!